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Saturday, 15 October 2016

सन १८०३ से जयाड़ा वंश वृक्ष


सन १८०३ से जयाड़ा वंश का विवरण निम्न प्रकार से है:-
श्री शोबन सिंह जयाड़ा जी के तीन पुत्र थे.
१.कीडू सिंह
२.शीशु सिंह
३.मंगल सिंह
कीडू सिंह- १.भूप सिंह २. केशरा सिंह
शीशु सिंह
पहली पत्नी-१. लालू सिंह
दूसरी पत्नी-१. जूणा सिंह
मंगल सिंह
पहली पत्नी-१. बन्नू सिंह
दूसरी पत्नी-१. केदारू सिंह
कीडू सिंह के वंशज
१.भूप सिंह २. केशरा सिंह
भूप सिंह
पहली पत्नी-१. हौंसू सिंह २. बन्या सिंह
दूसरी पत्नी-१. बाला सिंह २. गौळ सिंह
केशरा सिंह
१. लूथी सिंह २. जुपल सिंह ३. ग्याड़ू सिंह
हौंसू सिंह- १. माधो सिंह २. जोगी सिंह
बन्या सिंह- १. कंठू सिंह २. नैन सिंह
बाला सिंह- १. लूद्र सिंह २. औगड़ सिंह
गौळ सिंह- १. जीता सिंह
लूथी सिंह- १. खेम सिंह २. बचन सिंह ३. धर्म सिंह ४. फ़ते सिंह
जुपल सिंह- १. शिव सिंह २. गैणु सिंह
ग्याड़ू सिंह- १. कंठी सिंह २. सब्बल सिंह
माधो सिंह
पहली पत्नी-१. श्याम सिंह
दूसरी पत्नी-१.चन्द्र सिंह २. सुन्दर सिंह ३. कुंदन सिंह ४ प्रेम सिंह
जोगी सिंह-१. गुलाब सिंह २. कुशाल सिंह ३. बादाम सिंह
कंठू सिंह- १. भूरा सिंह २. फ़ते सिंह
नैन सिंह-
पहली पत्नी-१.जगत सिंह
दूसरी पत्नी-१.चतर सिंह २. नेत्र सिंह ३. अतर सिंह ४. राजेंदर सिंह ५. बलवंत सिंह ६. सुभाष सिंह ७. ज्योति सिंह
लूद्र सिंह-१. बच्चू सिंह २. जवाहर सिंह
औगड़ सिंह- १. सत्ये सिंह २. इन्द्र सिंह ३. प्रताप सिंह
जीता सिंह- १. गुमान सिंह
खेम सिंह- १.हीरा सिंह २. बीरा सिंह ३. सुन्दर सिंह ४. मकान सिंह
बचन सिंह- १. तेज प्रताप सिंह २. प्रकाश सिंह
धर्म सिंह- १. नागेन्द्र सिंह २. प्रकाश सिंह
फ़ते सिंह- १. दयाल सिंह २. गोबिंद सिंह ३. मान सिंह
शिव सिंह- १. गुलाब सिंह २. शोबन सिंह
गैणु सिंह(कोई पुत्र नहीं)
कंठी सिंह- १. मोहन सिंह
सब्बल सिंह- १. सोहन सिंह २. चन्दन सिंह
श्याम सिंह-१. दीवान सिंह २. हिम्मत सिंह
चन्द्र सिंह
पहली पत्नी- १. उमेद सिंह
दूसरी पत्नी- १. रमेश सिंह २. दिनेश सिंह
सुन्दर सिंह- १. भगवान सिंह २. त्रिलोक सिंह ३. प्रवीण सिंह
कुंदन सिंह- १. जगमोहन सिंह २. बिजेंद्र सिंह
प्रेम सिंह-१. उत्तम सिंह २. सोहन सिंह
गुलाब सिंह-१. भीम सिंह
कुशाल सिंह-१.महावीर सिंह
बादाम सिंह-१. बलबीर सिंह २. रवि सिंह
भूरा सिंह- १. कुंवर सिंह २. कमल सिंह ३. बिक्रम सिंह
फते सिंह-
पहली पत्नी- १. जबर सिंह २. बिरेन्द्र सिंह ३. दर्मियान सिंह
दूसरी पत्नी- १. जोत सिंह २. गबर सिंह ३. ऊदे सिंह
जगत सिंह- १. यशपाल सिंह २. अरबिंद सिंह
चतर सिंह-१. राजपाल सिंह
नेत्र सिंह- १. रोजन सिंह २. मनोज सिंह
अतर सिंह-(सर्प के काटने से मृत्यु)
राजेंदर सिंह- नाम उपलब्ध नहीं
बलवंत सिंह- नाम उपलब्ध नहीं
सुभाष सिंह-नाम उपलब्ध नहीं
बच्चू सिंह-१. सुभाष सिंह
जवाहर सिंह-
पहली पत्नी- १.विनोद सिंह २. त्रिलोक सिंह ३. पान सिंह
दूसरी पत्नी- १. रोशन सिंह
सत्ये सिंह- १. भगवान सिंह २. गोबिंद सिंह
इन्द्र सिंह-१. सुरेंदर सिंह २. विजेंद्र सिंह
प्रताप सिंह-१. सुखदेव सिंह
गुमान सिंह-
पहली पत्नी- १.हुकम सिंह
दूसरी पत्नी- १. शोबन सिंह २. जोत सिंह ३. बिक्रम सिंह
हीरा सिंह-१. सिकंदर सिंह २.त्रिवेंद्र सिंह ३. दिनेश सिंह
बीरा सिंह- १. यशपाल सिंह २. सूरजपाल सिंह ३. गौतम सिंह
सुन्दर सिंह- १. दीपक सिंह २. दिर्घपाल सिंह
मकान सिंह -साधु बन गए
दयाल सिंह-१. अनुज सिंह २. मनोज सिंह
गोबिंद सिंह-१. अंकित सिंह
मान सिंह-१. मनीष सिंह
गुलाब सिंह-१. प्रताप सिंह २. गम्भीर सिंह ३ प्रकाश सिंह ४. चैन सिंह
शोभन सिंह- नाम उपलब्ध नहीं
शीशु सिंह के वंशज
पहली पत्नी- १. लालू सिंह
दूसरी पत्नी- १.जूणा सिंह
लालू सिंह-१. पिनघट सिंह
जूणा सिंह-१. मधु सिंह
पिनघट सिंह-१. छौड़्या सिंह २. अब्लू सिंह
मधु सिंह- १. कुशाल सिंह २. शेर सिंह
छौड़्या सिंह-
पहली पत्नी- १.बच्चू सिंह
दूसरी पत्नी- १.औतार सिंह २. रणबीर सिंह
अब्लू सिंह- १. लाटा सिंह
कुशाल सिंह-१. जय सिंह(रविन में बस गए) २. अतोल सिंह ३. मोर सिंह ४. नारायण सिंह
शेर सिंह- १. हरि सिंह ३. शूरवीर सिंह
बच्चू सिंह- १. मान सिंह
औतार सिंह- १. गोबिंद सिंह २. गजे सिंह
रणबीर सिंह- १. शोबत सिंह
लाटा सिंह- १. उमेद सिंह २. बीर सिंह ३. कल्याण सिंह ४. कुशाल सिंह
अतोल सिंह-१. संत सिंह २. सरदार सिंह
मोर सिंह-१. विजयपाल सिंह २. मान सिंह
नारायण सिंह-१. रतन सिंह २. मथन सिंह ३. लोकेन्द्र सिंह
हरि सिंह-१.हरदेव सिंह २. बलदेव सिंह ३. राम सिंह
शूरवीर सिंह-१. कुलदेव सिंह २. शिवचरण सिंह ३. दिगंबर सिंह
मंगल सिंह के वंशज
पहली पत्नी- १.बनू सिंह
दूसरी पत्नी- १.केदारू सिंह
बनू सिंह-१. चिन्द्रू सिंह २. श्रीचंद सिंह
केदारू सिंह-१. जुणू सिंह
चिन्द्रू सिंह-
पहली पत्नी- १.बद्री सिंह २. सरोप सिंह ३. गोकल सिंह
दूसरी पत्नी- १.अमर सिंह २. रूप सिंह(कोई पुत्र नहीं)
श्रीचंद सिंह-१.
पहली पत्नी- १. भौंपा सिंह
दूसरी पत्नी- १. कंठू सिंह २. मूर्ती सिंह
जुणू सिंह- १. मैन्दर सिंह
बद्री सिंह-१. टंखू सिंह
सरोप सिंह-१. रेबत सिंह २. कुंदन सिंह ३. होशियार सिंह ३. दलेब सिंह (माता की बीमारी से मौत हुई)
गोकल सिंह- १.गुलाब सिंह २. प्रेम सिंह २. दर्शन सिंह
अमर सिंह-१. छौन्दाड़ सिंह २. कल्याण सिंह
कंठू सिंह-१. भैरव सिंह
मूर्ती सिंह-१. मोर सिंह २. मकान सिंह
भौंपा सिंह- १. मक्खन सिंह
मैन्दर सिंह-१. पूरण सिंह २. कुंवर सिंह ३. भगवान सिंह
टंखू सिंह-
पहली पत्नी- १. बुध्धि सिंह
दूसरी पत्नी- १. रमेश सिंह २. महिपाल सिंह ३. जयपाल सिंह ३. मस्तान सिंह
गुलाब सिंह-१. राजेंद्र सिंह
प्रेम सिंह-१. जगमोहन सिंह २. राजेंद्र सिंह ३. रवि सिंह ४. विनोद सिंह
दर्शन सिंह-
पहली पत्नी- १. शोबन सिंह
दूसरी पत्नी- १. जोत सिंह २. आनंद सिंह
रेबत सिंह-१. सुन्दर सिंह २. मोर सिंह ३. रुकम सिंह
कुंदन सिंह-१. *जगमोहन सिंह २. राजेश सिंह
होशियार सिंह-१. त्रिलोक सिंह २. जसबीर सिंह ३. शूरवीर सिंह
छौन्दाड़ सिंह-१. बिक्रम सिंह २. धन सिंह ३. बलबीर सिंह ४. रघुबीर सिंह
कल्याण सिंह-१. सूरत सिंह २. दयाल सिंह ३. सुन्दर सिंह ४. पूर्ण सिंह
भैरव सिंह-१. शूरवीर सिंह २. रुकम सिंह ३. प्रकाश सिंह ४. कलम सिंह
मक्खन सिंह-१.गोबिंद सिंह २. भगवान सिंह ३. दर्मियान सिंह ४. हरदेव सिंह
मोर सिंह-१. राजेंदर सिंह २. सुरेन्द्र सिंह
पूरण सिंह-१. करण सिंह २. भगत सिंह ३ गजपाल सिंह
कुंवर सिंह-१. नत्था सिंह २. मनोज सिंह
भगवान सिंह-१. रविन्द्र सिंह

 साभार :  जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"

Sunday, 11 September 2016

वो भूली दास्ताँ....


तस्वीरें बोलती हैं ....

वो भूली दास्ताँ....लो फिर याद आ गयी ... !!

               अपने साजो-सामान के साथ तसल्ली से प्रतीक्षा बेंच पर बैठकर उबले हुए भुट्टे का आनंद लेते हुए बुजुर्ग महोदय को शायद अचानक कुछ याद आ गया ! और थम कर कुछ सोचने लगे !!
               एक ऑफिस में कर्मचारियों का लंच समय समाप्त होने की प्रतीक्षा में एक बुजुर्ग ..

Monday, 29 August 2016

एक गौरक्षक से भेंट




एक गौरक्षक से भेंट..........

मूर्धन्य व्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाई जी का व्यंग्य, " एक गौरक्षक से भेंट " पढ़ रहा था... व्यंग्य रोचक, सारगर्भित व आज भी प्रासंगिक है। एक अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ .... जिसमें परसाई जी का गौ रक्षक आन्दोलन में सम्मिलित होने जा रहे एक स्वामी जी से संवाद है ___

– स्वामीजी, जहाँ तक मैं जानता हूँ, जनता के मन में इस समय गोरक्षा नहीं है, महँगाई और आर्थिक शोषण है। जनता महँगाई के ख़िलाफ़ आंदोलन करती है। जनता आर्थिक न्याय के लिए लड़ रही है। और इधर आप गोरक्षा-आंदोलन लेकर बैठ गए हैं। इसमें तुक क्या है ?
– बच्चा, इसमें तुक है। तुम्हे अंदर की बात बताता हूंl देखो, जनता जब आर्थिक न्याय की माँग करती है, तब उसे किसी दूसरी चीज़ में उलझा देना चाहिए, नहीं तो वह ख़तरनाक हो जाती है। जनता कहती है – हमारी माँग है महँगाई कम हो, मुनाफ़ाख़ोरी बंद हो, वेतन बढ़े,शोषण बंद हो, तब हम उससे कहते हैं कि नहीं, तुम्हारी बुनियादी माँग गोरक्षा है, आर्थिक क्रांति की तरफ़ बढ़ती जनता को हम रास्ते में ही गाय के खूँटे से बाँध देते हैं। यह आंदोलन जनता को उलझाए रखने के लिए है।
 
 

Wednesday, 6 July 2016

सठे साठ्यम् समाचारेत् ....



सठे साठ्यम् समाचारेत् ....

        हमारी गली में कई कुत्ते हैं लेकिन एक कुत्ता हर बाइक व साइकिल सवार के पीछे दौड़ता है कुछ को काट भी चुका है ! मगर एक महिला उस कुत्ते पर पलटवार करने वाले को गालियाँ देने से बाज नहीं आती !!
        लोग उस महिला से कहते हैं कि अगर इस कुत्ते से इतना ही मोह है तो इसे बाँध कर रखो तो इस पर वो उस कुत्ते के स्वामित्व से मुकर जाती है ! बड़ी विकट स्थिति है !!
        खैर ! रोज की तरह मैं बाइक पर निकला मगर उस दिन तथाकथित मालकिन और कुत्ते दोनों को सबक सिखाने मूड में था ! ज्यों ही कुत्ता मेरे पीछे दौड़ा ! मैंने कसकर डिस्क ब्रेक खींच दिए ! अचानक बाइक रुक जाने से मेरे पीछे बदहवास सा दौड़ता कुत्ता अवाक सा बाइक के पास ही ठहर गया ! बाइक पर बैठे -बैठे " सठे साठ्यम् समाचारेत् " की रीत पर मैंने उसको मौका दिए बिना तुरंत उसकी थूंथन पर पैर से प्रहार कर दिया ! अचानक प्रहार से विचलित कुत्ता संभलने में असमर्थ था ! वापस भागा ! तथाकथित मालकिन मेरे तेवर देखकर स्तब्ध थी !! कुछ न बोल सकी !!
      अब वो कुत्ता मेरे पीछे काटने को नहीं दौड़ता है !
      विवेकानन्द जी ने भी कहा है, " भागो मत ! पलटो और मुकाबला करो ! "
सोचता हूँ, मंच कोई भी हो, मिथ्या, तथ्यहीन, अनर्गल प्रलाप पर मौन साध लेना और सही को सही कह सकने की हिम्मत न जुटा पाना भी विपरीत आचरण को उत्साहित करने जैसा ही कृत्य है।

बुरा जो देखन मैं चला,..



बस यूँ ही बैठे ठाले-ठाले ...

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोये।
जो मन खोजा आपना, तो मुझसे बुरा न कोये॥
 
          सोच रहा था !! हम यहाँ फेसबुक पर दिन-रात ज्ञान बांटते हैं.. सरकार किसी की भी हो लेकिन व्यवस्था में, समाज में.. ढेरों कमियाँ खोजकर सरकार को कोसने व समस्याओं पर बढ़-चढ़कर बहस करने में भी हमें महारत हासिल है ! तारीफ़ का हुनर भी हम सभी में खूब है !!
         हम सभी की आदर्शवादी पोस्ट्स से महसूस होता है जैसे हम सभी फेसबुक यूजर भगवान् स्वरुप हैं .. फिर भी अव्यवस्था !!
       खैर .. लोकतंत्र है सब चलेगा ! लेकिन फिर भी सोचता हूँ कि हम मानव हैं .. भगवान् नहीं !! कमियाँ हम सभी में हैं बेशक उनका स्वरुप अलग-अलग हो सकता है.
       जिस तरह हम दूसरे में कमी खोजते हैं या दोषारोपण करते हैं क्या हम उसी तर्ज पर अपनी व्यक्तिगत कमियों, अवगुणों या दोषों को भी सहजता से स्वीकार कर उन पर चर्चा कर सकने का साहस और आत्म सुधार की व्यक्तिगत मन: स्थिति रखते है !!
या यूँ ही "फेसबुक बाबा" के रूप में कॉपी-पेस्ट और वाल पेपर पोस्ट करके निठल्ला ज्ञान ही बांचते रहेंगे ....
       सोचता हूँ सवा अरब की आबादी के देश में " शिकायती फोंपू " बनने से बेहतर है कि उपलब्ध संसाधनों से व्यक्तिगत स्तर पर स्वयं के चिड़ि प्रयासों द्वारा आदर्श प्रस्तुत किए जाएं. इस तरह समाज में सकारात्मक सोच अवश्य विकसित हो सकती है।
                              हम सुधरेंगे... जग सुधरेगा .. हम बदलेंगे.. जग बदलेगा ..


Friday, 10 June 2016

राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता या स्वस्थ प्रतिस्पर्धा !!





राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता या स्वस्थ प्रतिस्पर्धा !!

       जूता, थप्पड़, घूँसा, स्याही,,और न जाने क्या-क्या !
       आखिर हम ये किस प्रकार सी जंगल संस्कृति की नुमाइश पर उतर आये हैं ! क्या हम विचार शून्य होते जा रहे हैं !! आश्चर्य तब अधिक होता है जब समाज के नेतृत्व का जिम्मा लिये प्रथम पंक्ति के कुछ राजनीतिज्ञ स्वयं तो दिखावे के लिए इस तरह के कृत्यों का “ सधे हुए शब्दों “ में केवल औपचारिक तो विरोध करते हैं (हालाँकि इस विरोध में उनकी शर्तें लागू रहती हैं !!) लेकिन अपने दल के द्वितीय पंक्ति के नेताओं, कार्यकर्ताओं व समर्थकों (अंध समर्थकों) की इस तरह के अमर्यादित कृत्यों पर “ हंसी “ व इन कृत्यों को “ व्यंग्य बाण “ के रूप में इस्तेमाल पर मौन रहना, इन कुत्सित कृत्यों को प्रोत्साहित ही करता है !! कारण !! नकारात्मक कार्यों के कारण, ध्रुवीकरण की आस इन राजनेताओं का को बहुत रास आ रही है !! इन कुंठित व असंस्कृत कृत्यों का सशक्त विरोध किये जाने के स्थान पर राजनेता, राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की मनोवृत्ति से इतना ग्रस्त हो चुके हैं कि ऐसे लोगों को “ उपकृत “ करके इस जंगल संस्कृति को और अधिक पोषित करने में लगे हैं !!
यह नही भूलना चाहिए कि राजनीति किसी भी राष्ट्र की जीवन धारा का मार्ग तय व प्रशस्त करती है, राजनीति को विद्वेष से दूर रख स्वस्थ व वैचारिक प्रतिस्पर्दा तक सीमित रखना भी राजनेताओं का राष्ट्र धर्म है..
    शिव खेड़ा साहब ने बहुत सही बात कही है ..” यदि आपके पड़ोस में अपराध हो रहा है और आप बिना प्रतिरोध शांत है तो अपराधी का अगला शिकार आप ही हैं ..” कहा भी गया है जलती लकड़ी पीछे की तरफ ही आती है समय रहते उपाय न किया गया तो हाथ भी जला सकती है !! अब स्थिति यहाँ तक आ ही गयी है !!!
      राजनीति के “ वर्तमान संस्करण “ को देखते हुए, आज माननीय अटल जी जैसे नेताओं का समय पूर्व राजनीतिक परिदृश्य से अलग हो जाना बहुत सालता है.. सत्य साधना के लिए साधन और मार्ग भी सत्य आधारित ही होना चाहिए ..

Saturday, 4 June 2016

मानसिक अफीम !!



मानसिक अफीम !!

        ये सुकून बख्श है कि समाज में अवैध नशीले पदार्थ मुहैया करवाने वाले लोगों के लिए दंड का विधान है ..
     मगर सोचता हूँ ! कुछ लोग प्रचलित नशे, अफीम के स्थान पर समाज में लगातार खुले आम " मानसिक अफीम " की विघटनकारी खुराक मुहैया करवा रहे हैं और लोगों की सोचने -समझने व विश्लेषण कर सकने की क्षमता का निरंतर ह्रास करके, इक्कीसवीं सदी के डिजिटल युग में भी सदैव मानसिक अफीम के नशे में धुत्त रहने वाले समाज का बेरोकटोक निर्माण कर रहे हैं !!
क्या ! मानसिक अफीम को अलग-अलग रंग के कैप्सूलों व इंजेक्शन के रुप में खुले आम बेचने वाले समाज में उच्च सम्मान व सुरक्षा प्राप्त सौदागरों से निपटने के लिए भी डिजिटल इंडिया में कोई कठोर डिजिटल कानून बन सकेगा !! स्थिति बद से बदतर होती जा रही है ! शीघ्र लगाम लगाना बहुत आवश्यक है।
     हालांकि सुना है .. " मेरा देश बदल रहा है ! "
     सोचता हूँ यदि फिर भी स्थिति नहीं सुधरती तो जो लोग मानसिक अफीम सेवन से अभी दूर हैं या इस नशे के आदी नहीं हुए हैं उन्हें संगठित होकर पहल करनी ही होगी ! इस अफीम के सौदागरों को सबक सिखाना ही होगा !!

मदारी !!



           

मदारी  !!

 बचपन में आपने भी ऐसे मानसिक खेल खेले होंगे जिनमें मानसिक एकाग्रता की आवश्यकता होती थी. इस प्रकार खेल-खेल में मानसिक व्यायाम भी हो जाता था.
            दो खेल काफी प्रचलित थे १- तोता उड़...मैना उड़ .. २- ऊँच-नीच का पापड़ा ..
            इन खेलों में एक निर्देश देता था और अन्य सभी साथी, निर्देशों उनका पालन करते थे..प्रारंभ में निर्देशों की आवृत्ति कुछ लम्बी लेकिन जब कोई भी गलती नही कर रहा दीखता था तो निर्देशों की आवृत्ति भी बढ़ा दी जाती थी !! आवृति बढ़ जाने से यंत्रवत निर्देशों का पालन करने वाले, निर्देशानुसार पालन न कर पाने के कारण आउट हो जाते थे, लेकिन हारने के बाद भी, पराजित भाव में शरमाते हुए स्वयं की गलती पर स्वयं ही हँसकर अपना मन हल्का करना चाहते थे !! दूसरे उनकी गलत पर ताली बजा-बजा कर मजाक बनाते हुए खूब हँसते थे !!
             बचपन में मदारी का तमाशा देखने की भी बहुत उत्सुकता रहती थी. मदारी दिखा नहीं की सारे बच्चे मदारी के पीछे-पीछे चल देते थे !! हालाँकि उसके पास वही दिखे-दिखाए खेल होते थे लेकिन !! हर बार नया मदारी पुराने मदारियों से हटकर, अपने ख़ास अलग अंदाज़ में प्रस्तुतीकरण से सबको सम्मोहित कर, बच्चों ही नहीं वयस्कों और बूढों को भी, नया खेल देखने की उत्सुकता में रुकने को मजबूर कर देता था !      

          लेकिन उसके पास कोई अलग खेल नही होता था वही पुराने देखे - दिखाए खेल !  
         अंत में लोग स्वयं को ठगा महसूस करते हुए भी उसको कुछ न कुछ पैसे देते हुए धीमे-धीमे कदमों से वहां से चल देते थे. इस पर भी कोई मदारी को उल्टा सीधा नहीं कहता था,यदि कोई व्यक्ति अपनी नाराजगी जताता भी था तो उसका स्वर बहुत धीमा होता था,मदारी दैन्य भाव में अपनी रोजी रोटी का हवाला दे कर उसको शांत कर देता था.. व्यक्ति का धीमा स्वर अपने मस्तिष्क का विवेकपूर्ण उपयोग न करने की गलती के आत्मबोध का परिणाम ही होता था !! लेकिन अधिकतर लोग विरोध करने पर, हंसी का पात्र बनने के भय से चुपचाप चले जाते थे !!
       उम्मीद करता हूँ कि इस आलेख  का परोक्ष आशय आप समझ ही गए होंगे !

Sunday, 29 May 2016

श्रद्धांजलि ..



             25 अगस्त 1943 को आज़ाद हिन्द फौज पूर्ण सेनापतित्व ग्रहण करने के पश्चात् नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने रंगून में बहादुर शाह के मकबरे पर भारत के अंतिम बादशाह को श्रद्धांजलि अर्पित की और कहा --
          “ हम भारतीय धार्मिक विश्वासों को अलग रख बहादुरशाह की याद स्मरण करते हैं, इसलिए नही कि वे वही पुरुष थे जिन्होंने शत्रुओं से लड़ने के लिए भारतीयों का आह्वान किया था बल्कि इसलिए कि उनके झंडे के नीचे सभी प्रान्तों, सभी धर्मों को मानने वालों ने युद्ध किया था. वह पुरुष, जिसके पावन झंडे के नीचे स्वतंत्रता के इच्छुक हिन्दू, मुस्लमान और सिक्खों ने साथ-साथ लड़ाई लड़ी थी.”
         स्वयं बादशाह ने कहा था – “ जब तक भारतीय स्वतंत्रता के लिए लड़ने वालों की आत्माओं में विश्वास का अंतिम कण बाकी है, भारत की तलवार लन्दन की छाती को लगातार छेदती रहेगी.”
       आज राष्ट्रीय मामलों पर आम जनता में दलगत निष्ठाओं से ऊपर उठकर समालोचक चिंतन की परम आवश्यकता है, क्योंकि हम किसी राजनैतिक दल द्वारा किये जा रहे गलत काम का तो विरोध करते हैं और किया भी जाना चाहिए लेकिन जब वही कार्य ऐसा राजनैतिक दल करता है जिसकी विचार धारा से हम प्रेरित हैं या उस विचार धारा को हम पोषित करते हैं, तो हम उस स्थिति में मौन साध लेते हैं या उस कृत्य को उचित ठहराने के लिए कई तर्क देने लगते हैं....


Friday, 20 May 2016

निंदा रस !



निंदा रस !!

        कई दिनों से लिखने की सोच रहा था लेकिन  कुछ दोस्त टांग खींच लेते थे,अपनी टांग छुड़ाने के फेर में लिखने का वक़्त ही नही मिल पाया ..भला ऐसे दोस्तों के टांग खिंचाई सम्मान को छोड़कर उनका अपमान कैसे कर सकता था !
       खैर आज दोनों टांगों को सुरक्षित कर आपसे मुखातिब हूँ ..!!
        वैसे श्रृंगार रस और वीर रस पर कुछ लिखने या चर्चा करने के लिए अनुकूल माहौल चाहिए लेकिन रसों में सर्वश्रेष्ठ “ निंदा रस “ के लिए माहौल की कोई आवश्यकता नही.जब चाहो और जहाँ चाहो मध्यम या कर्णभेदी आवाज़ में हो जाइये शुरू. खेल-तमाशे की तरह डुग-डुगी बजाने की आवश्यकता भी नही !! शुभ चिन्तक और अशुभ चिन्तक सभी उचक-उचक कर सुनने को तत्पर मिल जायेंगे.
       निंदा रस कई प्रकार के होते हैं मोटे तौर पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष, वैसे कुछ जो निंदा रस में डी.लिट्.कर चुके है, वो “ मौन निंदा रस ” में अधिक विश्वास रखते हैं लेकिन हम अभी निचली कक्षा  के छात्र हैं तो इस विधा के बारे में चर्चा करना  हमारी मेधा शक्ति से परे की बात है..      

        हलके से मत लीजिये, कबीर दास जी जैसे संत ने इन्ही निंदको से तंग आकर ही “ निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छंवाय “ लिखकर निंदको के सामने आत्मसमर्पण किया होगा !!!
        हरिशंकर परसाई जी ने तो “ निन्दा “ कहानी लिखकर अपनी भंड़ास निकाल ली लेकिन मुझे लगता है इस पर एक उपन्यास लिखा जाना चाहिए !! उसके बाद भी ऊबन नहीं होगी।
      अभी गर्मियों की छुट्टियों में भरी गर्मी में मैं अपनी बाइक पर तीन बड़े काले बैग( जनगणना,आर्थिक गणना और वोटर पहचान पत्र) व्यवस्थित कर रहा था, की पड़ोस के शर्मा जी ने बड़े आदर में कहा.  “ प्रणाम गुरु जी “ उनका मुस्कराता चेहरा देखकर मेरे पसीने टपकते चेहरे पर भी मुस्कराहट खिल आयी. आगे बोले ..” आजकल गुरुजनों की ही मौज है पूरे दो महीने मौज ही मौज ! ” अब तो हमारा चेहरा पास में टिफिन लिए पत्नी भी देखकर घबरा गयी.. खैर ! थैलों के कारण टिफिन को बाइक पर जगह न मिल सकी .. !!  चलना था इस कारण चाहते हुए भी शर्मा जी पर भंडास न निकाल सका !!
   फेसबुक की बात न हो तो सरासर नाइंसाफी ही होगी. कुछ साथी, पोस्ट पर अधिक लाइक आने के कारण अन्दर ही अन्दर इतना कुढ़ते हैं कि अपने अन्दर हो रही ,इस रस की अधिकता को  “ उलटी सदृश ” कमेन्ट के रूप में निकालकर अपनी भड़ास निकालने से परहेज नही करते..!! बेशक वो उलटी उन्ही को फिनाइल डालकर पोछे से साफ़ करनी पड़ती है..लेकिन वो पोछा लगाकर भी “निंदा रस” का परमानन्द लेना चाहते हैं. कुछ छुट भैया “निंदा रस” के शिक्षार्थी  उनके उलटी रुपी कमेन्ट को तुरंत लाइक कर यह जताना चाहते हैं कि हम भी इस रस के अध्य्यन में पूरी रूचि से कृत संकल्प हैं !!!
      भाईचारे के लिए ऐसे लोग आपके साथ मिलकर जोर-शोर से नारे लगते हुए चलेंगे, कुछ दूर चलकर जब आप पीछे मुड़ कर देखेंगे तो स्वयं को अकेला ही पाएंगे. आपकी लोकप्रियता के कारण आपके साथ रहकर ऐसे लोग आपके साथियों में चापलूसी द्वारा अपनी पहचान बनाते हैं  और आपके साथियों के साथ गुटबंदी करके अपना उल्लू साध लेते हैं !! क्योंकि  भौतिकवादी युग में चापलूसी खूब  सिर चढ़कर बोलती है और उसका कोई तोड़ भी नहीं !!!
ऐसे लोगों को सुधारा तो नही जा सकता लेकिन बस इतना अवश्य कहना चाहूँगा कि....
       “ खुदा तू हमें इन दोस्तों से बचाए रखना,
             दुश्मनों से हम खुद ही निपट लेंगे “




Sunday, 15 May 2016

“पाला-बदल“ नेता ; राजनैतिक कोढ़






“पाला-बदल“ नेता ; राजनैतिक कोढ़


       कितना अच्छा हो यदि ऐन चुनावों के वक्त मौकापरस्त और मूल्यरहित राजनीति करने वाले "पाला-बदल" नेताओं को बड़े राष्ट्रीय दल पाला बदलने का मौका न देकर, बहिष्कार कर उनको आईना दिखाते !! जिससे यह प्रवृत्ति हतोत्साहित होती . आश्चर्य होता है !! जो नेता, चुनाव से कुछ दिन पूर्व तक पानी पी-पी कर जिस दल का विरोध करते दीखते हैं, सम्बंधित दल के चुनावों में अच्छी स्थिति में होने पर, ऐन चुनाव के वक्त, उसी दल की गोदी में बैठकर उसका महिमा गान प्रारंभ कर देते हैं !! क्या इतनी जल्दी विचार परिवर्तन हो सकते हैं ?? मेरे विचार से ये विचार परिवर्तन न होकर मौकापरस्ती या हित साधना ही कहा जाएगा. और इसी प्रकार के नेता अनैतिक कार्यों को बढ़ावा देते हैं !! भला ऐसे लोगों को अपने दल में शामिल कर ये राष्ट्रीय दल किस प्रकार, राजनीतिक सुचिता बनाये रखने के दावे कर सकते हैं !! समझ नही आता !!
      अगर ऐसे नेताओं की पृष्ठभूमि का अध्ययन किया जाय तो उनकी निष्ठा कभी किसी एक दल के साथ नही रही !! उनकी राजनीति, आदर्शों व राजनैतिक मूल्यों की न होकर, सदैव मौकापरस्ती की धुरी के इर्द-गिर्द ही घूमती है ..और मौकापरस्त कभी किसी का नही हो सकता ! आश्चर्य तब होता है जब राष्ट्रीय स्तर के दल ऐसे लोगों का अपने दलों में पूरे “बैंड-बाजे” के साथ स्वागत करते दीखते हैं !!
राजनैतिक सुचिता हर अनैतिक कार्य को रोकने का साधन है और नैतिकता परिपूर्ण लक्ष्य ( साध्य ) को प्राप्त करने के लिए साधन भी नैतिकता पर आधारित ही होने चाहिए ..
      दरअसल सम्यक लाभ के लोभ में राजनैतिक दल भी आदर्शों और मूल्यों को ताक पर रख देते हैं लेकिन कुछ सम्यक लाभ लम्बे समय में स्थापित आदर्शों पर कुठाराघात कर अवनति की ओर ही ले जाते हैं .. हालाँकि सभी दल “ पाला-बदल “ नेताओं के कृत्यों से त्रस्त हैं लेकिन इस दिशा में पहल करना ख़ुदकुशी करना ही समझते हैं !!
      दरअसल अनैतिक कार्यों के लिए सभी दल हाय-हल्ला तो करते दीखते हैं लेकिन अपने कुर्ते में कितने दाग और लगा दिए हैं.. इस बात को नजरअंदाज ही करते हैं !!
      मतदाता किसी पार्टी विशेष को उसके सिधान्तों और कार्यों के आधार पर वोट देते हैं लेकिन ये नकारे गए “ पाला-बदल “ नेता ऐन चुनाव के वक्त उसी दल में शामिल होकर मतदाता के साथ छल ही करते हैं !!
      क्या, ठीक चुनावों के वक़्त मौकापरस्त, मूल्यरहित और स्वार्थी नेताओं की इस प्रवृत्ति पर कभी अंकुश लग सकेगा ?? क्या मतदाता राजनैतिक दलों की इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने हेतु ऐसे “ पाला-बदल “ नेताओं को स्वयं से ही ख़ारिज कर सकेंगे ?? क्या आम जनता को इस राजनैतिक कोढ़ से कभी मुक्ति मिल सकेगी ??

ग्लैमरस मंहगाई डायन..


ग्लैमरस मंहगाई डायन..

                                                                     यूँ ही बैठे ठाले !!
                लोक सभा चुनाव के बाद से मंहगाई का धारदार चाकू से दैहिक विच्छेदन करने वाले नेताओं, मीडिया के बुद्धिजीवियों को मिस कर रहा हूँ।
               उस भावमय वातावरण का मुरीद हो गया था जब नेता जी टमाटर, आलू व प्याज के प्रति उमड़े अगाध प्रेम में मंचों पर आँसू बहाते थे.. छाती पीटते थे ... इन सब्जियों की माला गले में डालकर घूमते थे !
इलैक्ट्रानिक मीडिया, सोशल मीडिया, सार्वजनिक मंचों आदि सभी जगहों पर खोज लिया कहीं भी मंहगाई के बारे में चर्चा नहीं !! बेचारी मंहगाई डायन !! सोचता हूँ .. बुद्धिजीवियों की फटकार से आहत होकर सात समंदर पार चली गई है ! या नेताओं के अश्रु सैलाब में बहकर उसने बंगाल की खाड़ी में जल समाधि ले ली है!
              अब न ग्लैमरस मंहगाई डायन के बारे में चर्चा है न " मंहगाई डायन खात जात है " जैसा लोकप्रिय व कर्णप्रिय गीत ही कहीं सुनाई देता है !
              सोचता हूँ दूसरे की दही को हम बिना चखे भी खट्टा बता सकने का दुस्साहस कर सकते हैं ! लेकिन अपनी दही खट्टी होने के बावजूद भी उसे खट्टा बता सकने की साहस भला हममें कहाँ !!....

Wednesday, 20 April 2016

राग “ खिसियाना “ !!!



राग “ खिसियाना “ !

       शीतनिद्रा में पड़े मेंढकों को स्वप्न में वर्षा होने का आभास हुआ तो क्या बूढ़े ! क्या जवान !! अधिकतर मेंढक अपनी सिकुड़ी खाल को "तरेरते” हुए, सर्दी के मौसम में सुसुप्तावस्था के नशे में टर्र-टर्र का करते हुए जमीन से बाहर निकल आये! लेकिन चपलता अभाव में लतियाये गए और बिन वर्षा, प्रतिकूल मौसम के कारण गिरते-पड़ते, बीमार होकर पुन: भूमिगत हो जाने को मजबूर हुए !!
खैर ! कुछ लोगों की भी समय प्रतिकूल टर्राने की आदत होती है !! अब मुद्दे पर आता हूँ ..परसों की ही बात है मेरे अज़ीज़ मित्र आनंद साहब ने अपनी ईमानदारी की गाढ़ी कमाई से सुन्दर मकान बनाया और गृह-प्रवेश के अवसर पर मुझे सपरिवार आने का निमंत्रण दिया, मेरे पड़ोस में रहने वाले खन्ना साहब भी उभय परिचित थे, उनको भी निमंत्रण मिला, इसलिए हम साथ ही आनंद साहब के यहाँ नियत समय पर उपहार लेकर बधाइयां देने पहुँच गए, आनंद साहब अपने हंसमुख व मिलनसार अंदाज में गर्मजोशी से हमारा स्वागत करने ..जैसे पहले से ही तैयार थे !!
         चाय पान के साथ खुशनुमा माहौल में बातों का दौर शुरू हुआ ..सभी आनंद साहब के सुन्दर घर की तारीफ करते नही अघा रहे थे और आनंद साहब सरल व सौम्य अंदाज में सभी का शुक्रिया अदा कर रहे थे ..
      लेकिन मेरे साथ पहुंचे खन्ना साहब ने यह कह कर कि..”. आनंद साहब, आपने घर तो बहुत अच्छा बनाया लेकिन इस कालोनी में गुप्ता जी जैसा सुन्दर घर किसी का नही “..कहकर ..उल्लासपूर्ण माहौल में जैसे छींक मारकर सबको हैरत में डाल दिया.माहौल में जैसे सन्नाटा पसर गया !!.सब एक दूसरे के चेहरे के भावों का मूल्यांकन करते एकाएक चुप हो गए !!..
      खैर, बेहतरीन व्यक्तित्व के धनी आनंद साहब ने माहौल को बदलने के प्रयास में साथियों का हालचाल पूछने लगे !! और कक्ष से बाहर काम का बहाना कर चले गए . उनके मनोभावों से ऐसा लगता था जैसे वे अपने आवेशित भावों को नियंत्रण में रखने के अनियंत्रित प्रयास में अंतर्द्वंद में उलझ रहे हैं !!
       आनंद साहब की उपस्थिति के कारण ही सब संकोच कर रहे थे ... उनके जाते ही खन्ना साहब की जो छिछालीदर हुई, उसपर उनको वहां बैठते नही बन रहा था .. किसी तरह वहां से सपरिवार, कहीं और निमंत्रण का बहाना बनाकर बिना भोजन किये जाने को विवश हुए !!
             कमोवेश, माहौल के विपरीत स्वरालाप (बेशक घूंघट की आड़ में ही सही) द्वारा अपनी खीज निकालना !! ,आजकल “ विद्वता” का प्रतीक बन गया है !! और जब तथाकथित विद्वान यह खीज खुलमखुल्ला प्रदर्शित करते दिखाई देते हैं तो छुटभैय्या साथियों के भी पौ बारह हो आते हैं, बेशक उन्हें खन्ना साहब व सपरिवार तरह शर्मिंदगी झेलनी पड़े या बेमौसम बाहर निकल आये मेंढकों की तरह लतियाये जाने पर भूमिगत होने को मजबूर होना पड़े !!! ^^ विजय 


राजनीति की “ गंगा “



राजनीति की  “ गंगा “

       बेशक हम प्रत्यक्ष रूप से किसी राजनीतिक दल के प्रति अपनी प्रतिबद्धता स्वीकार न करें लेकिन वोट तो हम किसी न किसी राजनीतिक पार्टी को देते ही हैं. लिहाजा हमारे विचारों और चिंतन में उस राजनीतिक दल या विचारधारा की छाया, सावधानी बरतने के बाद भी आ ही जाती है.
        रोचक बात ये है कि स्वयं को किसी राजनीतिक दल या विचारधारा से न जुड़े होने का दावा करने वाले अधिकतर लोग ही सदैव किसी राजनीतिक दल के पक्ष में खड़े दिखते हैं !!
      मैं भी यह मानता हूँ कि राजनीतिक चिंतन निरर्थक नही, राजनीतिक चिंतन का अभाव, विचार स्थिरता और निरंकुशता को जन्म देता है. परन्तु सोचता हूँ कितना अच्छा और राष्ट्र हित में होता यदि हम हर अच्छे प्रयास का, दलगत राजनीति से ऊपर उठकर ..” किन्तु..परन्तु.. लेकिन “ ..आदि में न उलझकर, खुले दिल से स्वागत करते !!.. क्या हमारे पास हर कार्य का विरोध करने के अलावा कोई और मुद्दा नही ??
        अक्सर देखता हूँ यदि कोई राजनीतिक दल कोई नया काम करता है तो या तो उस पर छिद्रान्वेषण, आलोचना व विरोध प्रारम्भ कर दिया जाता है और यदि समाज में अधिसंख्यक स्वीकार्यता के चलते यह संभव न हो पाता तो चुप्पी साथ ली जाती है. इस उपक्रम के पीछे सराहना न कर सकने की मनोवृत्ति साफ़ झलकती है !! क्योंकि कुछ लोगों की संकीर्ण मानसिकता यह कहती है कि सराहना करने से सम्बंधित दल को फायदा हो सकता है.. और यदि सराहना करने की मजबूरी आन ही पड़ी !! तो,शब्दों को इस प्रकार साध कर सराहना की जाती है कि कहीं सम्बंधित दल की अच्छे कार्य के लिए सीधे-सीधे प्रशंसा किये जाने का संकेत समाज में न पहुँच जाए !! ऐसा करने पर उनको जनाधार सिमटने व अपनी विचारधारा के पराभाव का भय सालता है !!
         यदि आप उनकी दलगत चट्टान से निकली राजनीतिक “ गंगा “ में नहायेंगे तो ही पवित्र हैं !! परन्तु उनकी ‘ गंगा “ से हटकर, यदि आप गंगोत्री से निकलने वाली गंगा में नहा लिए तो आपकी पवित्रता पर संशय किया जा सकता है !! आजकल कई राजनीतिक दलों ने यह चिंतन अपनाया हुआ है. जब दूसरा दल कुछ करे तो पानी पी-पी कर उसका विरोध तय है लेकिन जब वो स्वयं करते हैं तो उसी बात को सही ठहराने के लिए उन दलों के प्रवक्ताओं के पास एकाधित तर्क तैयार मिलते हैं. यहाँ “ उसकी साडी मेरी साडी से अधिक सफेद कैसे !! वाला भाव, नकारात्मक रूप में स्पष्ट परिलक्षित होता है ।
        गंगा एक ही है जो कि सास्वत सत्य है उसका प्रवाह हम बाँध बनाकर कुछ समय तक रोकने का प्रयास तो कर सकते हैं लेकिन चिरकाल तक ऐसा कर पाना संभव नही !! क्या ही अच्छा होता हम अच्छे कार्यों का खुले दिल से स्वागत और गलत कार्यों का सशक्त विरोध करने की मनोवृत्ति को विकसित व प्रदर्शित कर पाते.. अर्थात अपने खोटे सिक्के को “ खोटा “ कह सकने की हिम्मत जुटा पाते !! काश !!हम दलगत निष्ठाओं से ऊपर उठ पाते तो शायद सही और गलत का वास्तविक मूल्यांकन हो पाता !! जो राष्ट्र की तरक्की में सहायक होता !! ^^ विजय 


लोकतंत्र का पर्व



चुनाव : लोकतंत्र का पर्व !! या सिर्फ मदारी का खेल !!

        कितना अच्छा होता !! समाज में धीरे-धीरे ही सही परन्तु एक सकारात्मक बदलाव आता और सभी राजनीतिक दलों के नेताओं को सुनने, दलगत राजनीति से ऊपर उठकर, स्वेच्छा से लाखों की संख्या में, आम जनता पहुँचती और “जिंदाबाद”, “मुर्दाबाद” और “हाय-हाय’ के नारों के उद्घोष के विपरीत, प्रमुख नेताओं को धैर्यपूर्वक सुनती, लुभावने भाषणों का स्व मूल्यांकन करती !! नेताओं से उनके लोक लुभावनी योजनाओं की कार्य योजना व उन योजनाओं की सफलता हेतु अपेक्षित संसाधनों की उपलब्धता व स्रोतों के बारे शालीनतापूर्ण व द्वेषरहित माहौल में खुले मन से प्रश्न करती !!
         शायद इस प्रक्रिया से चुनाव रैलियों, प्रचार व अन्य चुनाव आधारित अनियंत्रित व्यय पर काफी हद तक नियंत्रण पाया जा सकता है क्योंकि चुनाव पर होने वाला प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष व्यय अन्ततोगत्वा आम आदमी की ही जेब ढीली करता है.इससे समाज में ध्रुवीकरण को पोषित करने वाले वक्तव्यों, जो कई बार जातिवादी व धार्मिक उन्माद या असंतोष में परिवर्तित होकर सामाजिक सौहार्द पर कुठाराघात करती हैं, पर लगाम लग सकती है.
        रैली किसी भी राजनीतिक दल की हो, वहाँ जनता, जिस राजनेता को सुनने पहुंचती है उसके बारे में स्वप्न में भी नकारात्मक नही सुनना चाहती !!
      मेरे विचार से हमारे देश में विकसित “ लोकतंत्र “ में यही सबसे बड़ी कमी है !! यहाँ हम जिस राजनीतिक दल से भावनाओं से जुड़े हैं उस दल या व्यक्ति के बारे में कुछ भी नकारात्मक (भले ही वह सत्य तथ्यात्मक व व्यावहारिक सत्यता लिए ही क्यों न हो) सुनते ही आवेशित हो उठते हैं !! और कुतर्क पर उतारू हो जाते हैं !
       अगर वर्तमान ढर्रे पर ही हमारा लोकतंत्र चलता रहा तो रोज़ नए मदारी द्वारा, सांप नेवले की लड़ाई दिखाने की आस में हम उसकी तरफ आकर्षित होते रहेंगे और वो दूसरे मदारियों की तरह, अपने चिर-परिचित, घिसे-पिटे देखे-दिखाए खेल दिखाकर, अपनी गठरी बांधकर आगे बढ़ जाएगा. क्योंकि मदारी की भी मजबूरी है !! सांप नेवले की लड़ाई दिखाकर वह कभी अपनी रोज़ी-रोटी को समाप्त नही करना चाहेगा !! सांप ही उसकी रोज़ी-रोटी का जरिया है !! जिसे बार-बार दिखाकर वह आम जनता को इकठ्ठा करता है !! इस लडाई के बाद आम जनता को आकर्षित करने वाला सांप, नेवले द्वारा मारा दिया जाएगा !!
    ये तो मेरी मूढ़ बुद्धि की एक निजी संकल्पना मात्र है !!
     बहरहाल छोड़िए ये सब बेकार की बातें हैं !!
चलते हैं !! चौक में “ डुग-डुगी “ की आवाज़ और बच्चों के कौतूहलपूर्ण स्वर ऊँचे होते जा रहे हैं !! शायद फिर कोई नया मदारी आया है !! आज ये मदारी तो जरूर-जरूर “ सांप-नेवले “ की लडाई दिखायेगा !! 


ये किस कवि की कल्पना



" ये किस कवि की कल्पना ....!!! ये कौन चित्रकार है ......!!"
10 दिसंबर 1986 को प्रारंभ गृहस्थी का सफ़र,जिसमें अलग-अलग पड़ावों पर दो नए हमसफर (बेटी, दीपिका व बेटा चैतन्य) साथ हो लिए, ऊँचे-नीचे मार्गों से गुजरता हुआ अगले  पड़ाव की ओर बढ़ चला 


Tuesday, 12 April 2016

गाहे बगाहे !



गाहे बगाहे ! बस यूँ ही ! तस्वीर कौतुक

              कल सिनेमा देखने का मन हुआ .. शो प्रारंभ होने में कुछ वक्त था.. सोचा ! बैंच पर बैठे इन महोदय से मुखातिब हो लिया जाए !
             वैसे तो लंबू भाई शॅापिंग मॅाल के अन्दर की दुनिया के रंग बिरंगे नजारों को आराम से बैंच पर बैठकर देखते हुए मौज में नज़र आते हैं मगर ..
रूबरू होने पर हकीकत पता लगी !
             जनाब ने छूटते ही .. किसी खंडहर की दास्ताँ सुनाने की फरमाइश कर डाली !! बातों का सिलसिला आगे बढ़ा तो लंबू भाई ने अपना दर्द-ए-दिल भी बयाँ कर दिया .. बताया ... उजालों की चकाचौंध दुनिया के बाद रात के सन्नाटों में खुद को बहुत अकेला पाते हैं ! रात काटे से नहीं कटती !! ख्यालों में यूँ ही तन्हा बैठे-बैठे गुमसुम गुजर जाती है !
            सोचता हूँ .. व्यक्ति के चेहरे पर प्रदर्शित सदाबहार मुस्कराहट जरूरी नहीं कि सदैव उसकी प्रसन्नता का ही द्योतक हो .. सदाबहार मुस्कराहट, व्यक्ति की विपरीत परिस्थितियों में जीवटता बनाये रखने के गुण को भी प्रदर्शित करती है .. 


Thursday, 7 April 2016

ठाले ठाले बस यूँ ही ..




ठाले ठाले बस यूँ ही ..

     हर व्यक्ति और राजनीतिक दल नैतिक मूल्यों, आदर्शों व शुचिता की बात करता है लेकिन ... ढ़ाक के वही तीन पात !!
      कल्पना ही सही !! लेकिन यदि एक ऐसे राष्ट्रीय राजनीतिक दल का गठन हो जाए जिसमें सार्वजनिक रूप से कबूलनामे द्वारा स्वयं को साधु घोषित कर चुके, दल बदलू, विश्वासघाती, थनपति, अवसरवादी, भ्रष्टाचारी, बाहुबली, माफिया, तस्कर, नक्सली, धार्मिक उन्मादी, बलात्कारी, रसिक मिजाज, हत्यारे, आतंकी, विदेशों में धन रखने वाले, जमाखोर, कालाबाजारी, सुपारीबाज, बैंकों का कर्ज डकारने वाले उद्योगपति .. (जो " विशिष्ट क्षेत्र" छूट गए हैं उनको आप स्वयं जोड़ सकते हैं) .. जैसे लोग ही स्वयं द्वारा पूर्व में किये गए " कारनामों " की "विशिष्टता" के आधार पर चुनाव प्रत्याशी बनने के योग्य समझे जाएं !! तो कुछ अलग तरह के राजनीतिक व सामाजिक समीकरण बन सकते हैं !!
      फौरी तौर पर है तो बेसिर पैर की बात ! चलिए ! फिर भी कभी -कभी निठल्ला चिंतन ही सही ! क्योंकि "लोकतंत्र" में कुछ भी संभव है ! यदि राजनीतिक दलों में पहले से ही सम्मिलित या सम्बंधित इस तरह के " हुनरमंद " लोगों को उचित "सम्मान" न मिला तो भविष्य में सरकारों को गिराकर निश्चित ही ये सभी लोग एक मंच पर आकर एक अलग राजनीतिक दल बना सकते हैं !! आखिर कब तक ये लोग खुद नकाब में रहकर, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दूसरे दलों की सरकारें बनाने में सहयोग करते रहेंगे !! अगर विभिन्न दलों से जुड़े ऐसे लोग एक हो गए तो इस दल को पूर्ण बहुमत मिलना भी तय है !!
        इस लिए हमें पहले से ही "स्वागत-अस्वागत" के लिए तैयार रहना चाहिए !! अगर ऐसा संभव हुआ !! तो मुझे मुखौटा लगाये बड़ी बड़ी राजनीतिक दुकाने बंद होना तय लगता है !!


Saturday, 2 April 2016

राजनीति !!


राजनीति !!



        मूल्यरहित राजनीति के दौर में भी शुचिता व नैतिक मूल्यों का जीवन व्यतीत करने वाले जनप्रिय नेता, आदरणीय अटल जी को शुभ जन्म दिवस पर हार्दिक बधाइयाँ व शुभ कामनायें ।।
     1987 के आसपास की बात है तब बी जे पी का उत्तराखंड में खास जनाधार न था.माननीय अटल जी जनाधार मजबूत करने उत्तराखंड के तूफानी दौरे पर थे. रंवाई क्षेत्र की बात है उत्तराखंड राज्य हेतु जन मानस में उत्सुकता थी.
       एक जिज्ञासु ने माननीय अटल जी से उत्तराखंड राज्य गठन के सम्बन्ध में समर्थन व विचार जानने चाहे तो ..
      अटल जी ने पूछा, " आपको आखिर अलग उत्तराखंड राज्य क्यों चाहिए ?"
      प्रश्नकर्ता ने त्वरित उत्तर दिया, " हमारे यहाँ से लखनऊ की दूरी बहुत अधिक है और हमें हर काम के लिए लखनऊ जाना पड़ता है, बहुत समय और धन की आवश्यकता होती है !! " (तब उत्तराखंड राज्य गठन नही हुआ था तो उत्तराखंड वासियों को सचिवालय, उच्च न्यायालय आदि के काम से लखनऊ जाना होता था)
      माननीय अटल जी का इस तरह की मन स्थिति पर करारा जवाब था .. इस तरह तो फिर आप यह भी कहने लगेंगे .. यहाँ से दिल्ली बहुत दूर है !!!
     क्या आज की तुष्टिकरण द्वारा वोट बैंक की राजनीती में, इस तरह का जवाब कोई राजनेता दे सकने की कुव्वत रखता है ?? मुझे संदेह है !!!..
    माननीय अटल जी आपको व आपकी राष्ट्रीय अखंडता को समर्पित,राष्ट्रवादी सोच हेतु कोटिश: सादर नमन..
      उसी दौरान मुझे उत्तरकाशी निरीक्षण भवन में जन प्रिय नेता श्री अटल जी का करीब से साक्षात्कार करने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ था.
सोचता हूँ दलगत राजनीती से हटकर राष्ट्रवादी चिंतकों को अवश्य याद किया जाना चाहिए जिससे अगली पीढ़ी को प्रेरणा व संस्कार प्राप्त हों .
 
 

निट्ठल्ला चिंतन !!



निट्ठल्ला चिंतन !!

                 व्याकरणाचार्यों ने हर युग में और मानव की रग-रग प्रचुरता से व्याप्त व लोकप्रिय “निंदा रस” को प्रेम, श्रृंगार, वीर, रौद्र आदि रसों के साथ स्थान न देकर न जाने क्यों सदैव भेदभाव किया !! सृष्टि की उत्पत्ति से निरंतर इस रस के द्वारा पीड़ित व्यक्ति अपने मन के गुबार को बाहर निकालता है।     
          कभी-कभी व्यक्ति की स्वार्थ-सिद्धि में जिसने बाधा पहुँचाई, उसी के विरोध में रस के माध्यम से वह अपने गुबार को बाहर निकालता है. व्यक्ति के अंतर्मन को शांति पहुँचाने में इस रस की महती भूमिका है !!
          संभवत: वैचारिक आदान-प्रदान के दौरान जब किसी व्यक्ति यासमूहों की स्वार्थ-सिद्धि न हो पाई होगी तब इस रस की उत्पत्ति अंतर्मन से हुई होगी ! वैचारिक असमानता के कारण व्यक्तिगत स्वार्थों की तुष्टि न हो पाने की स्थिति में इस रस में भीगे तीक्ष्ण बाण पूरे समाज को ‘भेदन, कर सकने की अतुल्य सामर्थ्य रखते हैं!!
        बड़े-बड़े रजवाड़ों को छिन्न-भिन्न करने वाले इस रस से भीगे बाणों का कैकयी द्वारा प्रयोग और उनकी तीक्षणता और अचूक भेदन क्षमता पर भला कौन प्रश्न चिह्न लगा सकता है !! और तो और माता सीता के सतीत्व पर प्रश्न चिह्न भी इसी रस की परिणति थी !
        खैर ये तो गुजरे ज़माने की बातें हो गयी. आजकल ऑफिसों, कंपनियों में जिस कर्मचारी के पास इस रस का भण्डार है और सही समय पर यदि उसे इस रस में भिगोकर सही समय पर तीर चलाने में निपुणता है !! तो बिना काम किये वह अधिकारियों का कृपापात्र, विश्वास पात्र और आँखों का तारा बना रहता है !   राजनीतिक दलों व उनके समर्थकों में योग्यता की पहली पायदान “निंदा रस” में निपुणता ही है !!
        लगता है मैं भी कहीं न कहीं इस रस की महानता को दरकिनार कर रहा हूँ ! खैर मुद्दे पर आता हूँ इस रस का परोक्ष प्रयोग, स्वस्थ मनोरंजन एवं समय व्यतीत करने का सरल व सुलभ साधन है.क्या विद्वान् ! क्या अविद्वान !!सभी इस रस के छलकते प्यालों को देखकर रस को उदरित करने का लोभ संवरण नही कर पाते !! एक संयुक्त परिवार से कई एकल परिवार निर्माण में तो इस रस का कोई भी रस बराबरी नही कर सकता !!
      आलेख कुछ दीर्घ सूत्री सा होता प्रतीत हो रहा है !! बस यह कह कर अपनी बात को विराम देना चाहूँगा कि अंतर्मन की शांति को ही वास्तविक शांति कहा गया है और मानव की रग-रग में व्याप्त, अतुल्य सामर्थ्यवान “ निंदा रस “ इस कसौटी पर हर तरह से खरा उतरता है !!! तो क्यों न इस रस को अन्य रसों की तरह सम्मानित स्थान प्रदान किया जाय !! 

स्वस्थ व समृद्ध विरासत : संक्रमण काल



स्वस्थ व समृद्ध विरासत : संक्रमण काल

          पारंपरिक संगीत व नृत्य किसी भी संस्कृति के दर्शन हेतु स्वच्छ व स्पष्ट दर्पण होता है, आधुनिकता की ओट में व्यावसायिक मनोवृत्ति के तुष्टिकरण हेतु लोक संगीत में हिंदी फिल्मों की फूहड़ता का मिश्रण, उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति पर कुठाराघात है जो सामाजिक सहिष्णुता व समरसता में धीमे जहर की तरह नकारात्मक योगदान दे रहा है, इस कारण यह गंभीर चर्चा व चिंता का विषय बन गया है, संक्रमण काल में ही, समय रहते, समाज के प्रबुद्ध व नेतृत्व करने वाले वर्ग द्वारा समृद्ध विरासत को बचाए के लिए, फूहड़ता को तहेदिल से हतोत्साहित किया जाना अति आवश्यक है. इससे समाज में सकारात्मक सन्देश पहुंचेगा जिससे कलाकार,सकारात्मक सृजन की ओर उन्मुख होंगे ..
        ऐसा नही कि फूहड़ता भरा संगीत और नृत्य, पारंपरिक संगीत और नृत्य पर पूर्णतया हावी हो चुका है, आज भी शादी, पार्टी आदि में आधुनिक बैंड बाजों के मुकाबले,पारंपरिक वाद्ययंत्रों के स्वरों (ढोल-दमाऊ और मूसकबाजा) पर स्वाभाविक रूप से थिरकने वालों की संख्या अधिक ही देखने को मिलती है. आखिर संख्या अधिक क्यों न हो !! जन्म-जन्मान्तर से जो संगीत रग-रग में रचा-बसा है उस पर मन स्वाभाविक रूप से मयूर नाच उठता है और इस स्वाभाविक थिरकन से तन और मन, दोनों, हल्का महसूस करते है.


Wednesday, 30 March 2016

" सेतु “



" सेतु “

         “ देख !! तपती गर्मी में भाई स्कूल से आये हैं !! जल्दी से भाइयों के लिए ठंडी लस्सी बना और खाना परोस !!! “ तपती गर्मी में स्कूल से आई टपकते पसीने को पोंछती नेहा ने अभी घर के अन्दर कदम भी नही रखा था कि पड़ोसन से गप्पे करती माँ तल्ख़ लहजे में बोली. नेहा के लिए ये सब कोई नयी बात नहीं थी. लेकिन मन ही मन सोचती कि वो भी तो तपती गर्मी में भाइयों की तरह ही स्कूल से आती है !!
          आज नेहा मन ही मन खुश थी, भाइयों की जिद्द पर ही सही घर पर दो-चार नहीं !! पूरे बारह समोसे आये थे !! लेकिन ये क्या !! माँ ने सारे समोसे दोनों भाइयों को ही दे दिए !! नेहा ललचाई से टुकुर-टुकुर भाइयों को समोसे खाते देख रही थी !! हमेशा की तरह उसके हिस्से में समोसों की टूटी सख्त किनारी ही आ सकी !! मन मसोस का रह गयी नेहा !! कह भी क्या सकती थी माँ ने बचपन से ही पहले भाइयों को मन भर कर खिला कर बाद में जो बच जाए उसे खाकर संतोष कर लेने का “संस्कार “ ये कहते हुए डाल दिया कि “लड़की जात है पता नही ससुराल कैसी मिले !! फिर ससुराल वाले हमें उलाहना देते फिरेंगे !! “
              इन्ही सब हालातों में बचपन कब पंख लगाकर उड़ गया, नेहा को अहसास ही न हुआ !! वह ब्याह कर ससुराल आ गयी. विवाह की औपचारिकताओं के बाद, अगले दिन मुंह अँधेरे ही सुबह उठकर घर के काम में लग गयी, सासु माँ उसे रोकती पर वो सहजता और तन्मयता से फिर से काम में लग जाती. भोजन का समय हुआ तो डाइनिंग टेबल पर सबके लिए खाना करीने से लगा स्वयं मायके में मिले, सबसे अंत में खाने के “संस्कार” का अनुसरण करती हुई रसोई में बचा-खुचा काम निपटाने लगी !!
      “ नेहा !!..नेहा !!!” नेहा को रसोई में गए कुछ ही समय हुआ था कि सासू माँ की ऊंचे स्वर में आवाज सुनाई दी !! नेहा का तो घबराहट से बुरा हाल था !! मन ही मन नकारात्मक बातें ही उसके मन में आ रही थी .., पता नही खाना बनाने में उससे क्या गलती हो गयी ??. अब तो, उसको और उसके मायके वालों को क्या-क्या उट पटांग सुनने को मिलेगा !! खैर डरी-सहमी और सिकुड़ी, डाइनिंग टेबल के पास अपराध बोध में, नजरें झुकाकर, सासु माँ के पास जाकर मूर्तिवत खड़ी हो गयी, लगभग हकलाते हुए घबराहट भरे स्वर में बोली, “ जी...जी .. माँ जी “
         ” हम कब से, साथ में भोजन करने के लिए तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं !! कुर्सी सरकाकर नेहा के लिए जगह बनाती सासु माँ ने शिकायती मगर ममता भरे लहजे में कहा. वह सांसत में थी !! मायके में मिले “संस्कारों” की दुहाई देती है तो मायके वालों के बारे में पता नही क्या-क्या उल्टा सोचेंगे !! “ लाइए, माँ जी.. .आप आराम से बैठिये, मैं परोस लेती हूँ !! नेहा स्वयं को सहज व संयत करने का प्रयास करती हुई. भोजन परोसने लगी !!
         सासु माँ के इस अपनत्व भरे व्यवहार पर नेहा के आँखों में ख़ुशी के आंसू आने को थे !! लेकिन मायके के “संस्कारों “ की खिल्ली न उड़ाने लगें, मन ही मन यह सोचते हुए वो आंसुओं को छिपाने के प्रयास में स्वयं से लगातार जूझ रही थी.
          शायद ! आज नेहा को अपने अस्तित्व व महत्व का करीब से अहसास हुआ था !! लेकिन वो अब भी मायके और ससुराल, दो परिवारों के बीच, सम्मान और संबंधों का मजबूत " सेतु “ बना रहना चाहती थी .......... ^^ विजय जयाड़ा ..23.05.14


भोला भाला मासूम बचपन ...



मेरे कैमरे के लैन्स से

भोला भाला मासूम बचपन

 

Friday, 25 March 2016

ए गि फागुण मैना खैला होळि ..



ए गि फागुण मैना खैला होळि ... ए गि फागुन मैना खेळा होळि ..


Friday, 5 February 2016

सूरजकुंड अंतर्राष्ट्रीय हस्तशिल्प मेला, 2016.. फरीदाबाद



सूरजकुंड अंतर्राष्ट्रीय हस्तशिल्प मेला, 2016.. फरीदाबाद

            अरावली पहाड़ियों पर 1987 से प्रारंभ किये गए “सूरजकुंड अंतर्राष्ट्रीय हस्तशिल्प मेला” के बाद, प्रागैतिहासिक काल अवशेषों से जुड़े सूरजकुंड क्षेत्र ने अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र पर हस्त शिल्प व पुरा अवशेषों के क्षेत्र में अपनी विशेष पहचान बना ली है. मेले की लोकप्रियता का अंदाजा इन आंकड़ों से लगाया जा सकता है कि गत वर्ष कुल 12 लाख पर्यटक मेले में आये इनमे से एक लाख साठ हजार विदेशी पर्यटक थे..
           दिल्ली हरियाणा सीमा से लगे सूरजकुंड में ग्रामीण परिवेश के महकते वातावरण में 1 फरवरी से 15 तक चलने वाले इस मेले में कई देशों के हस्तशिल्प स्टाल लगे हैंऔर भारत के विभिन्न राज्यों के हस्त शिल्पी अपने हुनर का प्रदर्शन कर रहे हैं. जिससे स्वदेशी हस्त शिल्पियों को अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिल रही है.
         अभेद्य सुरक्षा व्यवस्था के बीच चल रहे मेले में, पसंद आने पर आप हस्त शिल्प की वस्तुएं खरीद सकते हैं. दर्शकों के लिए पारंपरिक मनोरंजन के साधनों के अतिरिक्त विभिन्न मंडपों पर स्वदेशी व विदेशी कलाकारों के साथ बिंदास थिरक सकने व वाद्य यंत्रों को बजा कर आनंद ले सकने की भी व्यवस्था है..
        सांस्कृतिक मंच.." चौपाल " पर समय देना न भूलियेगा , यहाँ पर प्रतिदिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर के देशी व विदेशी कलाकार अपनी स्वस्थ सांस्कृतिक प्रस्तुतियों के माध्यम मेले में होने वाली थकान को दूर करने में पूर्ण समर्थ हैं.
सप्ताह के सामान्य दिनों में मेले में प्रवेश हेतु टिकट दर 80 रुपये औए सप्ताहांत दिनों में 120 रुपये है.
          सोचता हूँ यदि उत्तराखंड में भी इस तरह की पहल हो तो वहाँ के हस्त शिल्पियों को राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिल सकती है जिससे प्रदेश का पर्यटन व हस्त शिल्प राजस्व भी बढ़ सकता है।
क्षेत्र के पुरातन इतिहास व पुरातन अवशेषों के सम्बन्ध में फिर कभी साझा करूँगा ..


Friday, 15 January 2016

लोकतंत्र !! या ........... !!




लोकतंत्र  !! या ........... !!

साहिल से टकरा कर कब ... ठहरी है मौजों की मस्ती !
टकराना उनकी फितरत और चोट देना साहिल की हस्ती !!
.. विजय जयाड़ा
 
              लोकतंत्र में नागरिकों द्वारा किसी मांग की उपयोगिता और अनुपयोगिता का मानदंड, उस मांग के पक्ष में खड़े नागरिकों का संख्या बल है !! अर्थात लोकतंत्र में सिर गिने जाते हैं !! एक ओर मंगल पर बसने की छटपटाहट और दूसरी ओर .. विचार से अधिक संख्या बल को तरजीह !! सौभाग्य कहा जाय या दुर्भाग्य !! खैर..ये एक अलग विषय है ... 


               बहरहाल, संख्या बल के उचित छायांकन द्वारा ही इलैक्ट्रोनिक मीडिया व प्रिंट मीडिया के माध्यम से सम्बंधित पक्षों को प्रत्यक्ष व प्रभावशाली सन्देश भी दिया जाता है .. जिससे बाद ही उनकी कुम्भकर्णी नींद खुलती है !! 


                इसी क्रम में कल तीन माह के बकाया वेतन को शीघ्र जारी करने की मांग के पक्ष में खड़े दिल्ली के सभी संवर्गों के निगम कर्मचारियों द्वारा सम्मिलित रूप से ऐतिहासिक संख्या बल द्वारा सामूहिक असंतोष व आक्रोश प्रदर्शित करने के उद्देश्य से सिविक सेंटर, अजमेरी गेट से जंतर मंतर तक विशाल ऐतिहासिक शांति मार्च निकाला गया ..


                हालांकि मैं पेशेवर फोटोग्राफर नहीं और न ही मेरे पास बहुत एडवांस कैमरा ही है !!लेकिन संख्या को प्रदर्शित करने के लिए मैंने कभी मीडिया वैन का तो कभी ऊंचे फ्लाई ओवर की साइड प्रोटेक्शन का सहारा लिया. कनाट प्लेस में ऑटो पर चढ़कर क्लिक कर रहा था कि अचानक रास्ता मिलते ही ऑटो मुझ लटके हुए को लेकर आगे बढ़ गया !! 


               समूह में स्वयं की भागीदारी सुनिश्चित करना और साथ ही पूरे जन सैलाब का छायांकन करना, परिश्रमपूर्ण कृत्य महसूस हुआ .. क्योंकि यहाँ विशाल जनसमूह को सड़क पर एकाएक कवर करने के लिए ऊंचा स्थान मिल पाना कठिन होता है ..


               सफल छायांकन भी आन्दोलन को गति प्रदान करता है .. संख्या बल का प्रभावी छायांकन करने में मैं कितना सफल हो पाया ! हर तस्वीर को देखकर ज्यादा सटीक मूल्यांकन तो आप ही कर सकते हैं !! 

Wednesday, 6 January 2016

अंतर्मन !!



अंतर्मन !!

धरती के आँचल में हर पल रहते हैं,
   हर मौसम और हाल में हम खुश रहते हैं !!

                  31 दिसंबर को नववर्ष की पूर्व संध्या पर जंतर मंतर, कनाट प्लेस पर बहुत से पर्यटक आये हुए थे .. दुनिया से बेखबर कई प्रेमी युगल सपनों के असीमित संसार में कल्पनाओं की उड़ान भरते आपस में खोये हुए दिख रहे थे. 

                वहीँ ये परिवार, दुनिया की चकाचौंध से बेखबर, जिस लॉन पर लोग चहलकदमी कर रहे थे, उस पर उग आई चंदोली घास को चुनकर शाम की सब्जी का इंतजाम करने में मशगूल था !! खुश था .. अपने हकीकत भरे छोटे से संसार में !! 


                   बड़े-बड़े दावों के बीच नयी-नयी सरकारें बनती होंगी.. उससे इनको क्या सरोकार !! इनका तो यही क्रम विगत तीन वर्षों से चल रहा है ..शायद दुनिया एक जगह ठहर गयी है !!
                   कितना अंतर है ना !! कल्पना के संसार में और हकीकत के संसार में !!! जरूरी नहीं कि कल्पना, मूर्त रूप ले पाए अगर मूर्त रूप ले भी तो न जाने कितना समय लगे !! लेकिन जो मूर्त है उसके लिए न कल्पना की आवश्यकता है न समय का इन्तजार !!! शायद इसी लिए संतों ने वर्तमान में जीने की सलाह भी दी है..

Sunday, 3 January 2016

उत्तराखंड की स्वस्थ परम्पराएँ .. दोण-कंडू




उत्तराखंड की स्वस्थ परम्पराएँ .. दोण-कंडू

        आज धर्मपत्नी मायके, ऋषिकेश, से लौट आयी ख़ास बात ये थी कि मायके से दोण और कल्यो (कलेवा) भी साथ में लायी.. जिसे स्थानीय भाषा में सम्मिलित रूप में ". दोण-कंडू " भी कहा जाता है .. ख़ास बात इसलिए .. क्योंकि फटाफट जीवन शैली और बढती क्रय क्षमता के दौर में उत्तराखंड की ये स्वस्थ परंपरा लगभग समाप्त सी होती जा रही है !!
         ये मात्र खाद्य सामग्री ही नहीं इसमें माँ और पूरे मायके का प्यार रचा-बसा होता है क्योंकि अर्से और रोट बनाना सहज कार्य नहीं इसमें निपुणता, लगन व परिश्रम की आवश्यकता होती है. अर्से (चावल का आटा+ गुड़ चाश्नी+ तेल में तलना) और रोट ( गेहूं का आटा+मोइन+गुड़ का पानी+ सौंफ+ नारियल+ तलना) को काफी समय तक रखकर उपयोग किया जा सकता है.
        पुराने समय में मायके से बेटी को ससुराल के लिए विदा करते समय दोण (राशन) व कल्यो के साथ विदा किया जाता था. जो लम्बे पैदल मार्ग में नाश्ते के रूप में और ससुराल पहुंचकर बेटी के परिवार के उपयोग में आता था. साथ ही बेटी इस रूप में मायके का प्यार आसपास पा लेती थी. आज भी ये परंपरा उन क्षेत्रों में कायम है जो बाजार से दूर हैं.
        आज की तेजरफ्तार जिंदगी और बढ़ी क्रय क्षमता के दौर में भी शुद्धता व पौष्टिकता लिए परंपरा, प्रासंगिक है ... हमें अपनी माटी से भी जोडती है.... हमारी पहचान भी बनाती है.