" सेतु “
“ देख !! तपती गर्मी में भाई स्कूल से आये हैं !! जल्दी से भाइयों के लिए ठंडी लस्सी बना और खाना परोस !!! “ तपती गर्मी में स्कूल से आई टपकते पसीने को पोंछती नेहा ने अभी घर के अन्दर कदम भी नही रखा था कि पड़ोसन से गप्पे करती माँ तल्ख़ लहजे में बोली. नेहा के लिए ये सब कोई नयी बात नहीं थी. लेकिन मन ही मन सोचती कि वो भी तो तपती गर्मी में भाइयों की तरह ही स्कूल से आती है !!
आज नेहा मन ही मन खुश थी, भाइयों की जिद्द पर ही सही घर पर दो-चार नहीं !! पूरे बारह समोसे आये थे !! लेकिन ये क्या !! माँ ने सारे समोसे दोनों भाइयों को ही दे दिए !! नेहा ललचाई से टुकुर-टुकुर भाइयों को समोसे खाते देख रही थी !! हमेशा की तरह उसके हिस्से में समोसों की टूटी सख्त किनारी ही आ सकी !! मन मसोस का रह गयी नेहा !! कह भी क्या सकती थी माँ ने बचपन से ही पहले भाइयों को मन भर कर खिला कर बाद में जो बच जाए उसे खाकर संतोष कर लेने का “संस्कार “ ये कहते हुए डाल दिया कि “लड़की जात है पता नही ससुराल कैसी मिले !! फिर ससुराल वाले हमें उलाहना देते फिरेंगे !! “
इन्ही सब हालातों में बचपन कब पंख लगाकर उड़ गया, नेहा को अहसास ही न हुआ !! वह ब्याह कर ससुराल आ गयी. विवाह की औपचारिकताओं के बाद, अगले दिन मुंह अँधेरे ही सुबह उठकर घर के काम में लग गयी, सासु माँ उसे रोकती पर वो सहजता और तन्मयता से फिर से काम में लग जाती. भोजन का समय हुआ तो डाइनिंग टेबल पर सबके लिए खाना करीने से लगा स्वयं मायके में मिले, सबसे अंत में खाने के “संस्कार” का अनुसरण करती हुई रसोई में बचा-खुचा काम निपटाने लगी !!
“ नेहा !!..नेहा !!!” नेहा को रसोई में गए कुछ ही समय हुआ था कि सासू माँ की ऊंचे स्वर में आवाज सुनाई दी !! नेहा का तो घबराहट से बुरा हाल था !! मन ही मन नकारात्मक बातें ही उसके मन में आ रही थी .., पता नही खाना बनाने में उससे क्या गलती हो गयी ??. अब तो, उसको और उसके मायके वालों को क्या-क्या उट पटांग सुनने को मिलेगा !! खैर डरी-सहमी और सिकुड़ी, डाइनिंग टेबल के पास अपराध बोध में, नजरें झुकाकर, सासु माँ के पास जाकर मूर्तिवत खड़ी हो गयी, लगभग हकलाते हुए घबराहट भरे स्वर में बोली, “ जी...जी .. माँ जी “
” हम कब से, साथ में भोजन करने के लिए तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं !! कुर्सी सरकाकर नेहा के लिए जगह बनाती सासु माँ ने शिकायती मगर ममता भरे लहजे में कहा. वह सांसत में थी !! मायके में मिले “संस्कारों” की दुहाई देती है तो मायके वालों के बारे में पता नही क्या-क्या उल्टा सोचेंगे !! “ लाइए, माँ जी.. .आप आराम से बैठिये, मैं परोस लेती हूँ !! नेहा स्वयं को सहज व संयत करने का प्रयास करती हुई. भोजन परोसने लगी !!
सासु माँ के इस अपनत्व भरे व्यवहार पर नेहा के आँखों में ख़ुशी के आंसू आने को थे !! लेकिन मायके के “संस्कारों “ की खिल्ली न उड़ाने लगें, मन ही मन यह सोचते हुए वो आंसुओं को छिपाने के प्रयास में स्वयं से लगातार जूझ रही थी.
शायद ! आज नेहा को अपने अस्तित्व व महत्व का करीब से अहसास हुआ था !! लेकिन वो अब भी मायके और ससुराल, दो परिवारों के बीच, सम्मान और संबंधों का मजबूत " सेतु “ बना रहना चाहती थी .......... ^^ विजय जयाड़ा ..23.05.14
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