उत्तराखंड की स्वस्थ परम्पराएँ .. दोण-कंडू
आज धर्मपत्नी मायके, ऋषिकेश, से लौट आयी ख़ास बात ये थी कि मायके से दोण और कल्यो (कलेवा) भी साथ में लायी.. जिसे स्थानीय भाषा में सम्मिलित रूप में ". दोण-कंडू " भी कहा जाता है .. ख़ास बात इसलिए .. क्योंकि फटाफट जीवन शैली और बढती क्रय क्षमता के दौर में उत्तराखंड की ये स्वस्थ परंपरा लगभग समाप्त सी होती जा रही है !!ये मात्र खाद्य सामग्री ही नहीं इसमें माँ और पूरे मायके का प्यार रचा-बसा होता है क्योंकि अर्से और रोट बनाना सहज कार्य नहीं इसमें निपुणता, लगन व परिश्रम की आवश्यकता होती है. अर्से (चावल का आटा+ गुड़ चाश्नी+ तेल में तलना) और रोट ( गेहूं का आटा+मोइन+गुड़ का पानी+ सौंफ+ नारियल+ तलना) को काफी समय तक रखकर उपयोग किया जा सकता है.
पुराने समय में मायके से बेटी को ससुराल के लिए विदा करते समय दोण (राशन) व कल्यो के साथ विदा किया जाता था. जो लम्बे पैदल मार्ग में नाश्ते के रूप में और ससुराल पहुंचकर बेटी के परिवार के उपयोग में आता था. साथ ही बेटी इस रूप में मायके का प्यार आसपास पा लेती थी. आज भी ये परंपरा उन क्षेत्रों में कायम है जो बाजार से दूर हैं.
आज की तेजरफ्तार जिंदगी और बढ़ी क्रय क्षमता के दौर में भी शुद्धता व पौष्टिकता लिए परंपरा, प्रासंगिक है ... हमें अपनी माटी से भी जोडती है.... हमारी पहचान भी बनाती है.
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