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Thursday, 3 December 2015
Wednesday, 11 November 2015
माँ दगड़ी एक और बग्वाल
माँ दगड़ी एक और बग्वाल
घौर का दाना बुजुर्गु दगड़ि बग्वालि कु आनंद ही कुछ और छ !!
बालापन मा माँ, हम तैं पटाखा नि फोड़ना का खातिर पुल्योंदि पत्योंदि थै ! पटाखों सि डरदि थै ! अब माँ कु शरीर दानु व्है गि ! आज मैन् माँ तैं पुल्ये पतैकि फुलझड़ी जल्वे दे !
अनुभव की बात छ कि दाना मन्खी और अबोध बच्चों कु स्वभाव एक जन होंदु ।
माँ के साथ मिलकर दीपावली का आनंद ही अलग है !!
बचपन में माँ, हमको पटाखे न फोड़ने के लिए मनाती थी। अब माँ बुजुर्ग हो गई है !! आज मैंने माँ को फुलझड़ी जलाने के लिए मना दिया !!
अनुभव की बात है कि बुजुर्गों और अबोध बच्चों का स्वभाव एक जैसा होता है !!
Tuesday, 27 October 2015
Wednesday, 21 October 2015
जब मैं पहाड़ के नीचे से गुजरा !! : संस्मरण
जब मैं पहाड़ के नीचे से गुजरा !!
( निवेदन : ये कौतुहल जनित और निहायत व्यक्तिगत संस्मरण है इसका उद्देश्य किसी भी तरह से अंधविश्वास को पोषित करना नहीं है.)
कल एक जिज्ञासु की जन्म कुंडली लेकर परिचित अच्छे ज्योतिष, पंडित जी के पास पहुंचा और जिज्ञासु का प्रश्न प्रस्तुत किया. पंडित जी ने पूर्ण मनोयोग से कुंडली का अध्ययन किया और फलित बताया लेकिन मैं पूर्ण संतुष्ट नहीं हो पाया !!
मैं उस जिज्ञासु की हस्तरेखा का अध्ययन पहले ही कर चुका था तो अंत में मैंने सकुचाते हुए पंडित जी से, जो उस जिज्ञासु की हस्तरेखा देखकर फलित अनुभूत किया था, साझा किया, पंडित जी ने फिर से लेपटॉप निकालकर गणना शुरू की !! तो मेरे आंकलन से पूर्ण सहमती जताई !!
पंडित जी ने उत्सुकता व कौतुहलवश अपने बेटे का भी हाथ देखने का आग्रह किया !! अब तो जैसे ये बिना पूर्व निर्धारित समय सारणी के ही मेरी त्वरित परीक्षा ली जा रही थी !!
मेरा नर्वस होना स्वाभाविक था ! क्योंकि पंडित जी स्वयं अच्छे पेशेवर ज्योतिष हैं ! आत्मविश्वास डोलने लगा और सोचने लगा !! विजय जयाड़ा !! आज आया तू पहाड़ के नीचे !!
खैर, आत्मविश्वास बटोरकर फलित वाचना प्रारम्भ किया और जो कुछ कहा, उसकी सत्यता को क्रॉस चैक करने के लिए, जिज्ञासु भाव से पंडित जी से ही जानना चाहा.
पंडित जी आश्चर्यचकित होकर कहने लगे, मास्टर जी .. हम तो कुंडली से शुभ-अशुभ समय का काल निर्धारित कर देते हैं लेकिन आपने तो, हस्त रेखाओं से ही घटनाओं का बहुत सटीक काल निर्धारण कर लिया !! फिर मेरे पास क्यों कुंडली लेकर आते हो. मैंने कहा महोदय मैं शौकिया हूँ और आप पेशेवर !! लिहाजा,अधिक अनुभव होने के कारण आपका ज्ञान पुख्ता है। आपके पास आकर मैं स्वयं द्वारा आंकलित फलित को क्रॅास चैक कर लेता हूँ जिससे मेरा आत्मविश्वास बढ़ता है ..
संस्मरण द्वारा स्वयं को प्रचारित की मंशा कदापि नहीं है। जिज्ञासुओं के बढ़ते विश्वास के उपरान्त घर पर आने वाले जिज्ञासुओं की बढती संख्या के कारण, मैं यह काम लगभग आठ वर्ष पूर्व ही बंद कर चुका हूँ, लेकिन पहली बार पहाड़ के नीचे से गुजरने के बाद जो आत्मविश्वास हासिल हुआ वो पहले कभी नहीं हुआ था !!
इतना अवश्य कहूँगा कि.....
किसी भी क्षेत्र में अर्जित ज्ञान, समाज द्वारा हमारी सहज स्वीकार्यता बढ़ाता है..
Friday, 9 October 2015
गडरिया !! : एक निरपेक्ष अमूर्त चिंतन
गडरिया !! : एक निरपेक्ष अमूर्त चिंतन
देश के एक बड़े बूचड़ खाने, गाजीपुर बूचड़ खाना, जिसमे आधिकारिक तौर पर प्रतिदिन 1500 भेड़ें काटी जाती हैं, की तरफ से गुज़र रहा था तो राजधानी की अच्छी-खासी 'चौड़ी चमकदार सड़क' पर भेड़ों को 'चराकर' बूचड़खाने की ओर हांकता 'गडरिया' दिखा. आदतन, बाइक रोकी और दृश्य को मोबाइल से क्लिक कर दिया.'भेड़ों' के इस ,बड़े झुण्ड, में अलग-अलग 'रंगों' से रंगी भेड़ों के 'छोटे-छोटे झुण्ड' अलग से स्पष्ट दिख रहे थे, जिससे स्पष्ट हो रहा था कि भेड़ें 'कई टोलों' से एकत्र की गयी हैं. लेकिन दूर से सभी भेड़ें सफेद, 'एक ही रंग' की दिख रही थीं। सभी एक साथ 'एक ही दिशा' में 'अनुशासन' में चल रही थी !! अब इसे क्या कहूँ .. 'गडरिये' का कुशल नेतृत्व, कुटिलता, स्वार्थसाधना, रोजगार का तकाजा कहूं या भेड़ों की मजबूरी, अज्ञानता, गडरिये पर विश्वास या कुछ और !!.
लेकिन सोचता रहा कि यदि इन 'भेड़ों' को किसी तरह गडरिये की 'मंशा' का पता लग जाय तो क्या इस एक 'गडरिये' को इतनी सारी 'भेड़ों' पर अकेले काबू पाना आसान होगा !!
खैर !! छोड़िये. फिर देखता हूँ ..'व्यस्त सड़क' पर इन भेड़ों के निकल जाने के इन्तजार में कुछ 'गाड़ियां' खड़ी थी कुछ गाड़ियां भेड़ों से दूरी बना कर चल रही थी. 'पैदल यात्रियों' का भी यही हाल था !!
गंतव्य पर पहुंचकर भेड़ों की नियति क्या होगी !! ये तो आप और मैं भली-भांति समझ ही सकते हैं !! और हम कुछ कर सकने में भी ' असमर्थ' हैं !! लेकिन इस मूर्त दृश्य को देखकर, मन में, समाज में अमूर्त रूप से उपस्थित इस तरह के अनेकों दृश्य अलग-अलग रंग व रूपों में जीवंत हो उठे !!
Tuesday, 6 October 2015
बेटी “ सम्मान और संबंधों का मजबूत सेतु “ .. लघु कथा
बेटी
“ सम्मान और संबंधों का मजबूत सेतु “
“ देख !! तपती गर्मी में भाई स्कूल से आये हैं !! जल्दी से भाइयों के लिए ठंडी लस्सी बना और खाना परोस !!! “
तपती गर्मी में स्कूल से आई टपकते पसीने को पोंछती नेहा ने अभी घर के अन्दर कदम भी नही रखा था कि पड़ोसन से गप्पे करती माँ तल्ख़ लहजे में बोली. नेहा के लिए ये सब कोई नयी बात नहीं थी. लेकिन मन ही मन सोचती कि वो भी तो तपती गर्मी में भाइयों की तरह ही स्कूल से आती है !!
आज नेहा मन ही मन खुश थी, भाइयों की जिद्द पर ही सही घर पर दो-चार नहीं !! पूरे बारह समोसे आये थे !! लेकिन ये क्या !! माँ ने सारे समोसे दोनों भाइयों को ही दे दिए !! नेहा ललचाई से टुकुर-टुकुर भाइयों को समोसे खाते देख रही थी !!
हमेशा की तरह उसके हिस्से में समोसों की टूटी सख्त किनारी ही आ सकी !! मन मसोस का रह गयी नेहा !! कह भी क्या सकती थी माँ ने बचपन से ही पहले भाइयों को मन भर कर खिला कर बाद में जो बच जाए उसे खाकर संतोष कर लेने का “संस्कार “ ये कहते हुए डाल दिया कि “लड़की जात है पता नही ससुराल कैसी मिले !! फिर ससुराल वाले हमें उलाहना देते फिरेंगे !! “
इन्ही सब हालातों में बचपन कब पंख लगाकर उड़ गया, नेहा को अहसास ही न हुआ !! वह ब्याह कर ससुराल आ गयी. विवाह की औपचारिकताओं के बाद, अगले दिन मुंह अँधेरे ही सुबह उठकर घर के काम में लग गयी, सासु माँ उसे रोकती पर वो सहजता और तन्मयता से फिर से काम में लग जाती.
भोजन का समय हुआ तो डाइनिंग टेबल पर सबके लिए खाना करीने से लगा स्वयं मायके में मिले, सबसे अंत में खाने के “संस्कार” का अनुसरण करती हुई रसोई में बचा-खुचा काम निपटाने लगी !!
“ नेहा !!..नेहा !!!” नेहा को रसोई में गए कुछ ही समय हुआ था कि सासू माँ की ऊंचे स्वर में आवाज सुनाई दी !! नेहा का तो घबराहट से बुरा हाल था !! मन ही मन नकारात्मक बातें ही उसके मन में आ रही थी .., पता नही खाना बनाने में उससे क्या गलती हो गयी ??. अब तो, उसको और उसके मायके वालों को क्या-क्या उट पटांग सुनने को मिलेगा !!
खैर डरी-सहमी और सिकुड़ी, डाइनिंग टेबल के पास अपराध बोध में, नजरें झुकाकर, सासु माँ के पास जाकर मूर्तिवत खड़ी हो गयी, लगभग हकलाते हुए घबराहट भरे स्वर में बोली, “ जी...जी .. माँ जी “
” हम कब से, साथ में भोजन करने के लिए तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं !! कुर्सी सरकाकर नेहा के लिए जगह बनाती सासु माँ ने शिकायती मगर ममता भरे लहजे में कहा. वह सांसत में थी !! मायके में मिले “संस्कारों” की दुहाई देती है तो मायके वालों के बारे में पता नही क्या-क्या उल्टा सोचेंगे !! “ लाइए, माँ जी.. .आप आराम से बैठिये, मैं परोस लेती हूँ !! नेहा स्वयं को सहज व संयत करने का प्रयास करती हुई. भोजन परोसने लगी !!
सासु माँ के इस अपनत्व भरे व्यवहार पर नेहा के आँखों में ख़ुशी के आंसू आने को थे !! लेकिन मायके के “संस्कारों “ की खिल्ली न उड़ाने लगें, मन ही मन यह सोचते हुए वो आंसुओं को छिपाने के प्रयास में स्वयं से लगातार जूझ रही थी.
शायद ! आज नेहा को अपने अस्तित्व व महत्व का करीब से अहसास हुआ था !! लेकिन वो अब भी मायके और ससुराल, दो परिवारों के बीच, “ सम्मान और संबंधों का मजबूत सेतु “ बना रहना चाहती थी .
.. विजय जयाड़ा
Monday, 5 October 2015
राजा नंगा है
राजा नंगा है
काफी समय पहले पढ़ी, हैंस क्रिश्चियन एंडरसन द्वारा लिखित “ राजा नंगा है “ आज भी प्रासंगिक है और समाज को सही दिशा दे सकने में समर्थ है.एक राजा को कपड़ों का बहुत शौक था. वह देश-विदेश के दर्जियों से वह कपड़ों के डिजायनों की बात करता रहता था. जो भी उसके कपड़ों की प्रशंसा करता उसको वह बहुत इनाम देता था
दो विदेशी ठगों ने राजा को ठगने की योजना बनायीं. राजा के सामने उपस्थित हो उन्होंने कहा हम आपके लिए सोने और हीरे के धागों से बनी ऐसी पोषाक बना सकते हैं जिसको किसी ने सपने में भी नही देखा होगा. लेकिन शर्त ये है कि उसको मूर्ख और पद के अयोग्य व्यक्ति नहीं देख सकता है !!
राजा ने बहुत सारा सोना और हीरा साथ में सूत तैयार करने के लिए दो खडडियाँ लगाकर पोशाक तैयार करने का आदेश दे दिया. ठग दिन-रात खडडियों के चक्कर लगाते काटने लगे मानो वे कपडा तैयार कर रहे हों जबकि वे कपडा बनाने का अभिनय कर रहे थे..
कई दिन बीत जाने के बाद राजा ने एक मंत्री से काम में तरक्की देखने को कहा.. मंत्री दर्जियों के पास पहुंचा तो वहां उसे खडडियों के अलावा कुछ न दिखा. लेकिन राजा उसे मूर्ख व पद के अयोग्य न समझे इसलिए उसने वापस आकर राजा से कहा, “ हुजुर बहुत बढ़िया कपडा तैयार हो रहा है “ राजा बहुत खुश हुआ. उसने समय-समय पर कई मंत्रियों को भेजा लेकिन सभी ने तैयार हो रहे कपडे को बहुत सुन्दर बताया !!
अब राजा के मन में भी जिज्ञासा हुई वो भी वहां गया लेकिन उसको कुछ न दिखाई दिया तो वो सोचने लगा, क्या मेरे मंत्री मुझसे भी अधिक बुद्धिमान हैं !! क्या मैं मूर्ख हूँ !! क्या मैं राजा के काबिल नहीं !! लेकिन फिर उसने सोचा, ये बात किसी को पता नहीं लगनी चाहिए. ये सोचकर राजा ने खडडियों की तरफ देखकर कहा, “ कितना सुन्दर कपडा है, सोने और हीरे की कितनी सुन्दर बुनाई की गयी है!!” महल में पहुंचकर राजा ने दरबारियों से कहा अगले सप्ताह एक बड़ा जुलूस निकलना उसमे में नए कपड़े पहनकर निकलूंगा.
आखिर वो दिन भी आया ठगों ने राजा को कपडे उतारने को कहा और ऐसे हाव-भाव दिखाए जैसे वे सच में राजा को नयी पोशाक पहना रहे हों !! दरबारी और मंत्री स्वयं को मूर्ख और पद के अयोग्य समझे जाने के भय से वाह-वाह किये जा रहे थे.
राजा नंगा ही हाथी पर सवार होकर राज्य में निकल पड़ा दरबारी पीछे-पीछे ..रास्ते में भीड़ भी मूर्ख समझे जाने के भय से राजा के कपड़ों (जो कि वास्तव में थे ही नहीं) की तारीफ में वाह-वाह करती, लेकिन तभी भीड़ में से एक बच्चा बोल पड़ा, ‘राजा नंगा है, उसके पास कपडे नहीं हैं ! “
यह सुनकर बच्चे के पिता ने कहा इस बच्चे की बात सुनो, “ यह कह रहा है कि राजा नंगा है !! “
फिर तो भीड़ भी चिल्लाने लगी “ राजा नंगा है !! राजा नंगा है !!”
अचानक राजा को अहसास हुआ कि ठगों ने उसको ठग लिया है. उसे शर्म आई लेकिन असली बात को जाहिर करने में उसे और भी शर्मिंदगी महसूस हुई ! इसलिए उसने लोगों को यही दिखाया कि लोग गलत है और वो सही है !! शान से वह जुलूस में आगे बढ़ता रहा जैसे उसने बहुत शानदार कपडे पहन रखे हों !! भीड़ अब भी चिल्ला रही थी, “ राजा नंगा है !! राजा नंगा है !!”
प्रश्न उठता है कि क्या सच को सच और गलत को गलत कह सकने की बच्चे जैसी निश्छल मासूमियत हम में है !!
बेशक, अपनी मन: स्थिति को संतृप्त करने व व्यक्तिगत स्वार्थों के चलते, विवेक को गिरवी रख देते हैं,फलस्वरूप किसी तथ्य या घटना का बिना तार्किक विश्लेषण किए उत्साहित होकर हम भीड़ मे सम्मिलित होकर पैरवी करने लगते हैं लेकिन देर सबेर हकीकत सबके सामने आ ही जाती है !! इस से हमारी सार्वजनिक विश्वसनीय व स्वीकार्यता पर प्रश्न लग जाता है ! और हम स्वयं को किंकर्तव्यविमूढ़ पाते हैं !!
Thursday, 1 October 2015
हमारी स्वस्थ सांस्कृतिक परम्पराएं
हमारी स्वस्थ सांस्कृतिक परम्पराएं
गाँव में भी तेजी से शहरी फटाफट संस्कृति पाँव पसार रही है. दूर दराज के गाँव में अब भी संस्कृति की जड़ों को खाद-पानी मुहैय्या हो रहा है..
दगड्यों पंगत मा बैठि तैं माळु का पत्तल मा भात दाल सपोड़्न् कु और व्वे का बाद मिट्ठा भात खाण कु आनंद हि अलग छौ। अब कि बराति्युँ मा बेशक बानि बानि का पकवान बण्यां रंदन पर खड़ा खड़ी खाण मा न आनंद औंदु न धीत भरेंदी .. मैं त घौर बिटि डट्ट खै तैं ब्यो बरातियों मा जांदु छौं .. याद करा दौं दग्डि़यों पैलि सरोळा जी घमा घम जल्दा बल्दा भात का ढिक्का पत्तलों मा डाळ्दा छा, कबारि कबारि त दाल काणा पुड़खों का छेद बिटि सर्रर्रर .... निकळ जांदिं छै, खूब खिकचोट मचदु छौ हैंस्दा हैंस्दा खाणौं पिणु ह्वै जांदु छौ ।पोटगि भी डम भरे जांदि छै अर धीत भी !! दग्ड़ियों कतना भलु लग्दु छौ ना !!
Saturday, 26 September 2015
दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन..
शादी के व्यस्त माहौल के बीच कुछ शांत और एकांत के पल बहुत सुकून देते हैं.
सुनसान और अँधेरी राहों पर गुलज़ार साहब का लिखा गीत ताज़ा हो आता है ..इस गीत से जुड़ी रोचक जानकारी भी देना चाहूँगा ••••
" दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन.
बैठे रहें तस्सवुर-ए-जानां किए हुए..."
जब भी हम ये गीत सुनते हैं , तो कह उठते हैं कि वाह! गुलज़ार साहब ने क्या गीत लिखा है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि ऊपर के ये दो लाईन गुलज़ार साहब ने नहीं लिखी हैं, मिर्जा ग़ालिब साहब ने लिखी हैं। गुलज़ार साहब ने सिर्फ इसका अंतरा लिखा है। ये अलग बात है कि अंतरा भी उतना ही लाज़वाब है जितना कि मुखड़ा।
Wednesday, 23 September 2015
फेसबुक मित्र समागम ..
फेसबुक मित्र समागम ..
उम्र का बंधन नहीं
न रुत्बे का ही गुरुर
दोस्ती मांगती है
सिर्फ ... दिल में...
प्यार और स्नेह का
कोना एक जरूर...
न रुत्बे का ही गुरुर
दोस्ती मांगती है
सिर्फ ... दिल में...
प्यार और स्नेह का
कोना एक जरूर...
फेसबुक पर हम पोस्ट या चैट के माध्यम से आभासी मित्रों से रूबरू होते हैं लेकिन यदि हकीकत में फेसबुक मित्रों से साक्षात्कार हो जाय तो उस आत्मीय,खुशनुमा और अनौपचारिक माहौल को शब्दों में बयां कर पाना कठिन हो जाता है. इसी क्रम में आज फेसबुक मित्र सम्मिलन के सूत्रधार बने, मेरे बायीं तरफ बैठे सम्मानित श्री सतीश पुरोहित जी, जो सेवानिवृत्त अधिकारी हैं, सम्मानित श्री जी.एस. चड्ढा जी, जो कि फैशन डिज़ाइनिंग कम्पनी में मैनेजर हैं. मेरे दायें, सम्मानित श्री ए.के अरोड़ा जी, जो की वर्तमान में नॉएडा में ओरिएण्टल बैंक ऑफ़ कॉमर्स में असिस्टैंट जनरल मैनेजर हैं और परिसर के सुरक्षा कर्मी, फोटो क्लिक करने वाले मित्र हैं सम्मानित श्री अजिताब जी, जो क्रिएटिव डाइरेक्टर हैं, विज्ञापन फिल्म और डॉक्युमैन्ट्री निर्माण करते हैं..
मेरे अतिरिक्त सभी एक से बढ़कर एक बड़ी हस्ती !! लेकिन सभी के सरल और सहज व्यवहार ने मन मोह लिया !! धन्यवाद सम्मानित साथियों , आपका सानिध्य सुख पाकर मैं अभिभूत हुआ ..
धन्यवाद फेसबुक ...
Sunday, 20 September 2015
फुटबॅाल विवेचना
फुटबॅाल विवेचना
भारतीय फुटबॅाल टीम के कप्तान सुनील छेत्री के साथ पुत्र चैतन्य
आज हमारे साहबजादे, चैतन्य ख़ुशी से कुप्पा हुए जा रहे थे तो हमने राज
जानने की गरज से पूछा, “जनाब हमें भी कुछ बताइये..माज़रा क्या है ?” तो छोटे
मियाँ ने झट से लैपटॉप खोला और ये तस्वीर दिखाई ! हमने खुद को गैर वाकिफ
सा जताते हुए छेड़ने की नियत से सवाल दागा, “ अमा मियाँ ! अब ये किसको दोस्त
बना लिया ?” साहबजादे आश्चर्य से मुझे
ताकते हुए बोले “ क्या पापा ! आपको इतना भी पता नहीं !! ये भारत की फुटबॉल
टीम के कप्तान सुनील छेत्री हैं !” हमने दिमागी घोड़ों को कुछ और तेज
दौड़ाते हुए चुटकी लेने के अंदाज़ में कहा, “ अमा मियां आप हद करते हो ! हर
वक्त बस फुटबाल पर ही अटके रहते हो !! आपको पता है, FIFA के 209 मेम्बरान
मुल्कों में कोस्टारिका जैसे 45 लाख की आबादी वाले देश 14 वीं पायदान पर है
लेकिन सेलेक्सन में, सिफारिश और भाई-भतीजावाद के कारण सवा अरब की आबादी
लिए हमारा मुल्क 147 वीं पायदान पर है !! शुक्र मनाओ !! कि हम बांग्लादेश
और पाकिस्तान से कुछ ऊपर हैं !” अब छोटे मिंया कुछ संजीदा होकर बोले, “ पापा, अब क्रिकेट के IPL की तरह फुटबॉल में भी ISL (Indian Super League) शुरू हो गया है, अब भारत जरूर तरक्की करेगा. “ छोटे मिंयाँ की बात से इत्तेफाक जताते हुए हमने उनसे ये तस्वीर ले ली ..
गौरतलब है कि सुनील छेत्री ने भाइचुंग भूटिया को पछाड़ते हुए अंतर्राष्ट्रीय फुटबॉल मैचों में भारत की तरफ से अब तक का सर्वाधिक 45 गोल करने का रिकॉर्ड अपने नाम कर लिया है.. चैतन्य आजकल छुट्टियों में फुटबॉल कोचिंग के लिए अम्बेडकर स्टेडियम जाता है वहीँ भारत की फुटबॉल टीम की विश्व कप क्वालीफाईग मुकाबलों का प्रथम चरण क्वालीफाई करने के बाद द्वितीय चरण को क्वालीफाई करने के लिए तैयारी चल रही है.
स्वयं क्रिकेट का अच्छे स्तर का खिलाडी रहने के बावजूद भी, बेटे को क्रिकेट की चकाचौंध से अलग रखकर मैंने सदैव फुटबॉल के प्रति प्रोत्साहित किया है और .भारत में दूर दराज के गाँवों में भी अपनी पैंठ बनाये रखने वाले एकमात्र खेल फुटबॉल के उज्जवल भविष्य के प्रति आशान्वित हूँ. भारतीय फुटबॅाल टीम हेतु हार्दिक शुभकामनाएँ ।
क्रिकेट को दूसरे खेलों की दयनीय स्थिति का कारण बताकर विलाप करने से अधिक उचित है कि हम इस दिशा में स्वयं ही अपने स्तर पर पहल करें ...... सफलता तो सदैव भविष्य के गर्भ में समायी रहती है लेकिन हम प्रयास तो कर ही सकते हैं।
Saturday, 12 September 2015
मंजिल करीब आती हैं
मंजिल करीब आती हैं
कठिन राहों पर चलने के बाद
हासिल होता है कोई मुकाम
इम्तिहानों से गुज़र जाने के बाद..
कठिन राहों पर चलने के बाद
हासिल होता है कोई मुकाम
इम्तिहानों से गुज़र जाने के बाद..
... विजय जयाड़ा
Tuesday, 8 September 2015
Friday, 28 August 2015
Monday, 10 August 2015
अंधभक्ति
.....अंधभक्ति....
सोचता हूँ ..किसी भी क्षेत्र में .. अंधविश्वास व अंधानुकरण ... अंधभक्ति को जन्म देते हैं !! .. और अंधभक्ति, व्यक्ति के विवेक को हर कर .. प्रज्ञा को अज्ञातवास पर जाने को मजबूर कर देती है !
फलस्वरूप व्यक्ति आत्ममुग्धता में अपनी मेधा के चारों ओर एक ऐसा आभासी अपारदर्शी आवरण निर्मित देता है जिसके पार वह देखना ही नहीं चाहता !! इस आवरण के अन्दर विचार आवागमन रुकने से,एक ही प्रकार के विचारों की स्थिरता से गाद एकत्र होने लगती है.
इस गाद से उठती दुर्गन्ध से उकताकर, जब व्यक्ति स्वनिर्मित आवरण से बाहर निकल कर झांकता है तब प्रज्ञा वापसी का मार्ग प्रशस्त होता है और उसे अब तक भ्रम जाल में फंसे होने की अनुभूति हो पाती है ! अर्थात सत्यता का ज्ञान होता है ! अब वह स्वयं को ठगा हुआ व किंकर्तव्यविमूढ़ पाता है !! लेकिन तब तक वह बहुत कुछ गँवा चुका होता है !!
चूंकि व्यक्ति से ही समाज व राष्ट्र का निर्माण होता है इसलिए समाज व राष्ट्र को भी खामियाजा भुगतना पड़ता है .. जिसकी भरपाई लम्बे समय तक नहीं हो पाती !!
Tuesday, 14 July 2015
Monday, 13 July 2015
संस्कारों में स्वच्छता भाव हस्तांतरण
संस्कारों में स्वच्छता भाव हस्तांतरण : एक मंथन
आदर्श जिए जाते हैं और गढ़े जाते हैं स्वयं से,
मिशाल कायम नहीं होती दूसरों को बताने और सुनाने से...
.. विजय जयाड़ा
बच्चे को स्वच्छता के संस्कार, सर्वप्रथम घर से फिर परिवेश से तदोपरांत विद्यालय में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से प्राप्त होते हैं. इस सम्बन्ध में माता-पिता,अध्यापक और स्थानीय परिवेश की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. परिवेश को एकाएक परिवर्तित करना तो अपने बूते की बात नहीं लेकिन अध्यापक के रूप विद्यालय में संस्कार दिए जा सकते हैं, साथ ही माता-पिता को भी इस सम्बन्ध में प्रोत्साहित किया जा सकता है, जिससे बच्चे में घर से ही स्वच्छता के प्रति सकारात्मक भाव उत्पन्न हो सकें..
हम विदेशी संस्कृति के फूहड़पन की नक़ल तो खूब करते हैं लेकिन उनकी राष्ट्र को समर्पित दिनचर्या को समझने का प्रयास नहीं करते !! जापान निवासी जब पालित कुत्ते को घुमाने ले जाते हैं तो कुत्ते द्वारा की गयी गन्दगी उठाने के लिए अपने साथ एक थैली और गन्दगी को जमीन से उठाने के लिए आवश्यक सामान अनिवार्य रूप से साथ ले जाते हैं
विद्यालय में अध्यापक का इस दिशा में स्वयं का आचरण व व्यवहार , बच्चों के लिए प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से मार्गदर्शी व संस्कारप्रद होता है.
हमारे विद्यालय के परिश्रमी सफाई कर्मचारी को पूरे समय विद्यालय के बड़े परिसर व बड़े भवन की सफाई करने से फुर्सत नहीं मिल पाती . व्यवस्था ये भी है कि इस तरह के सफाई कार्य, बाहर से किसी को बुलाकर उचित मजदूरी देकर करवा लिए जाएँ.
लेकिन यदि बच्चों को संस्कार देने हैं तो स्वयं भी इस दिशा में कुछ पहल की जा सकती है.. इससे बच्चों में अप्रत्यक्ष रूप से श्रम के प्रति निष्ठां व सम्मान का भाव भी जागृत होता है.
अब आप निश्चित तौर पर विचार कर रहे होंगे कि अध्यापक का काम पढ़ाना होता है, साफ़-सफाई करना नहीं ! तो साथियों, मध्यावकाश के दौरान व जब बच्चे लाइब्रेरी कक्ष में दूसरी अध्यापिका के पास चले जाते हैं उस समयांतराल का सदुपयोग कर मैंने अपने कक्षा-कक्ष की टाइलें थोडा-थोडा कर के चार दिन में चमका दी ..
आखिर मुझे ही तो इस कक्षा कक्ष में बच्चों के साथ दिन भर अध्यापन करना होता है ..
केवल व्यवस्था को उलाहना देकर इतिश्री कर देना भी उचित नहीं “ अपना हाथ जगन्नाथ “ और आत्मसंतोष के साथ " एक पंथ कई काज " .. भी हो जाते हैं..
सरकार काफी तनख्वाह देती है यदि अपने पेशे से हटकर कुछ अतिरिक्त कार्य भी कर लिया जाय तो ये स्वयं के लिए संतोषप्रद तो होगा ही साथी आत्मविश्वास भी बढेगा ..
Saturday, 11 July 2015
मुहब्बत से करो आगाज़
मुहब्बत से करो आगाज़
तो अजनबी भी करीब आते हैं
मुहब्बत है एक रूहानी मंजिल
जहाँ फ़रिश्ते भी सर झुकाते हैं....
तो अजनबी भी करीब आते हैं
मुहब्बत है एक रूहानी मंजिल
जहाँ फ़रिश्ते भी सर झुकाते हैं....
आज एक धर्म संगोष्ठी में पुलिस कमिश्नर श्री भूषण कुमार उपाध्याय साहब द्वारा अपने ओजस्वी विचारों को इस शेर से विराम देते सुना . बहुत अच्छा लगा मन हुआ कि आपके साथ भी साझा करूँ.
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