गडरिया !! : एक निरपेक्ष अमूर्त चिंतन
देश के एक बड़े बूचड़ खाने, गाजीपुर बूचड़ खाना, जिसमे आधिकारिक तौर पर प्रतिदिन 1500 भेड़ें काटी जाती हैं, की तरफ से गुज़र रहा था तो राजधानी की अच्छी-खासी 'चौड़ी चमकदार सड़क' पर भेड़ों को 'चराकर' बूचड़खाने की ओर हांकता 'गडरिया' दिखा. आदतन, बाइक रोकी और दृश्य को मोबाइल से क्लिक कर दिया.'भेड़ों' के इस ,बड़े झुण्ड, में अलग-अलग 'रंगों' से रंगी भेड़ों के 'छोटे-छोटे झुण्ड' अलग से स्पष्ट दिख रहे थे, जिससे स्पष्ट हो रहा था कि भेड़ें 'कई टोलों' से एकत्र की गयी हैं. लेकिन दूर से सभी भेड़ें सफेद, 'एक ही रंग' की दिख रही थीं। सभी एक साथ 'एक ही दिशा' में 'अनुशासन' में चल रही थी !! अब इसे क्या कहूँ .. 'गडरिये' का कुशल नेतृत्व, कुटिलता, स्वार्थसाधना, रोजगार का तकाजा कहूं या भेड़ों की मजबूरी, अज्ञानता, गडरिये पर विश्वास या कुछ और !!.
लेकिन सोचता रहा कि यदि इन 'भेड़ों' को किसी तरह गडरिये की 'मंशा' का पता लग जाय तो क्या इस एक 'गडरिये' को इतनी सारी 'भेड़ों' पर अकेले काबू पाना आसान होगा !!
खैर !! छोड़िये. फिर देखता हूँ ..'व्यस्त सड़क' पर इन भेड़ों के निकल जाने के इन्तजार में कुछ 'गाड़ियां' खड़ी थी कुछ गाड़ियां भेड़ों से दूरी बना कर चल रही थी. 'पैदल यात्रियों' का भी यही हाल था !!
गंतव्य पर पहुंचकर भेड़ों की नियति क्या होगी !! ये तो आप और मैं भली-भांति समझ ही सकते हैं !! और हम कुछ कर सकने में भी ' असमर्थ' हैं !! लेकिन इस मूर्त दृश्य को देखकर, मन में, समाज में अमूर्त रूप से उपस्थित इस तरह के अनेकों दृश्य अलग-अलग रंग व रूपों में जीवंत हो उठे !!
बहुत ही रोचक और शानदार रचना की प्रस्तुति।
ReplyDeleteशुक्रिया, आज़मी साहब
Deleteफिलहाल हमारे देश की राजनीति, सरकार और आम जनता की स्थिति कुछ ऐसी हीं हो गयी है।बहुत अच्छी अर्थपूर्ण रचना।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद, अनन्या जी
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