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Saturday 4 June 2016

मदारी !!



           

मदारी  !!

 बचपन में आपने भी ऐसे मानसिक खेल खेले होंगे जिनमें मानसिक एकाग्रता की आवश्यकता होती थी. इस प्रकार खेल-खेल में मानसिक व्यायाम भी हो जाता था.
            दो खेल काफी प्रचलित थे १- तोता उड़...मैना उड़ .. २- ऊँच-नीच का पापड़ा ..
            इन खेलों में एक निर्देश देता था और अन्य सभी साथी, निर्देशों उनका पालन करते थे..प्रारंभ में निर्देशों की आवृत्ति कुछ लम्बी लेकिन जब कोई भी गलती नही कर रहा दीखता था तो निर्देशों की आवृत्ति भी बढ़ा दी जाती थी !! आवृति बढ़ जाने से यंत्रवत निर्देशों का पालन करने वाले, निर्देशानुसार पालन न कर पाने के कारण आउट हो जाते थे, लेकिन हारने के बाद भी, पराजित भाव में शरमाते हुए स्वयं की गलती पर स्वयं ही हँसकर अपना मन हल्का करना चाहते थे !! दूसरे उनकी गलत पर ताली बजा-बजा कर मजाक बनाते हुए खूब हँसते थे !!
             बचपन में मदारी का तमाशा देखने की भी बहुत उत्सुकता रहती थी. मदारी दिखा नहीं की सारे बच्चे मदारी के पीछे-पीछे चल देते थे !! हालाँकि उसके पास वही दिखे-दिखाए खेल होते थे लेकिन !! हर बार नया मदारी पुराने मदारियों से हटकर, अपने ख़ास अलग अंदाज़ में प्रस्तुतीकरण से सबको सम्मोहित कर, बच्चों ही नहीं वयस्कों और बूढों को भी, नया खेल देखने की उत्सुकता में रुकने को मजबूर कर देता था !      

          लेकिन उसके पास कोई अलग खेल नही होता था वही पुराने देखे - दिखाए खेल !  
         अंत में लोग स्वयं को ठगा महसूस करते हुए भी उसको कुछ न कुछ पैसे देते हुए धीमे-धीमे कदमों से वहां से चल देते थे. इस पर भी कोई मदारी को उल्टा सीधा नहीं कहता था,यदि कोई व्यक्ति अपनी नाराजगी जताता भी था तो उसका स्वर बहुत धीमा होता था,मदारी दैन्य भाव में अपनी रोजी रोटी का हवाला दे कर उसको शांत कर देता था.. व्यक्ति का धीमा स्वर अपने मस्तिष्क का विवेकपूर्ण उपयोग न करने की गलती के आत्मबोध का परिणाम ही होता था !! लेकिन अधिकतर लोग विरोध करने पर, हंसी का पात्र बनने के भय से चुपचाप चले जाते थे !!
       उम्मीद करता हूँ कि इस आलेख  का परोक्ष आशय आप समझ ही गए होंगे !

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