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Friday 10 June 2016

राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता या स्वस्थ प्रतिस्पर्धा !!





राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता या स्वस्थ प्रतिस्पर्धा !!

       जूता, थप्पड़, घूँसा, स्याही,,और न जाने क्या-क्या !
       आखिर हम ये किस प्रकार सी जंगल संस्कृति की नुमाइश पर उतर आये हैं ! क्या हम विचार शून्य होते जा रहे हैं !! आश्चर्य तब अधिक होता है जब समाज के नेतृत्व का जिम्मा लिये प्रथम पंक्ति के कुछ राजनीतिज्ञ स्वयं तो दिखावे के लिए इस तरह के कृत्यों का “ सधे हुए शब्दों “ में केवल औपचारिक तो विरोध करते हैं (हालाँकि इस विरोध में उनकी शर्तें लागू रहती हैं !!) लेकिन अपने दल के द्वितीय पंक्ति के नेताओं, कार्यकर्ताओं व समर्थकों (अंध समर्थकों) की इस तरह के अमर्यादित कृत्यों पर “ हंसी “ व इन कृत्यों को “ व्यंग्य बाण “ के रूप में इस्तेमाल पर मौन रहना, इन कुत्सित कृत्यों को प्रोत्साहित ही करता है !! कारण !! नकारात्मक कार्यों के कारण, ध्रुवीकरण की आस इन राजनेताओं का को बहुत रास आ रही है !! इन कुंठित व असंस्कृत कृत्यों का सशक्त विरोध किये जाने के स्थान पर राजनेता, राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की मनोवृत्ति से इतना ग्रस्त हो चुके हैं कि ऐसे लोगों को “ उपकृत “ करके इस जंगल संस्कृति को और अधिक पोषित करने में लगे हैं !!
यह नही भूलना चाहिए कि राजनीति किसी भी राष्ट्र की जीवन धारा का मार्ग तय व प्रशस्त करती है, राजनीति को विद्वेष से दूर रख स्वस्थ व वैचारिक प्रतिस्पर्दा तक सीमित रखना भी राजनेताओं का राष्ट्र धर्म है..
    शिव खेड़ा साहब ने बहुत सही बात कही है ..” यदि आपके पड़ोस में अपराध हो रहा है और आप बिना प्रतिरोध शांत है तो अपराधी का अगला शिकार आप ही हैं ..” कहा भी गया है जलती लकड़ी पीछे की तरफ ही आती है समय रहते उपाय न किया गया तो हाथ भी जला सकती है !! अब स्थिति यहाँ तक आ ही गयी है !!!
      राजनीति के “ वर्तमान संस्करण “ को देखते हुए, आज माननीय अटल जी जैसे नेताओं का समय पूर्व राजनीतिक परिदृश्य से अलग हो जाना बहुत सालता है.. सत्य साधना के लिए साधन और मार्ग भी सत्य आधारित ही होना चाहिए ..

Saturday 4 June 2016

मानसिक अफीम !!



मानसिक अफीम !!

        ये सुकून बख्श है कि समाज में अवैध नशीले पदार्थ मुहैया करवाने वाले लोगों के लिए दंड का विधान है ..
     मगर सोचता हूँ ! कुछ लोग प्रचलित नशे, अफीम के स्थान पर समाज में लगातार खुले आम " मानसिक अफीम " की विघटनकारी खुराक मुहैया करवा रहे हैं और लोगों की सोचने -समझने व विश्लेषण कर सकने की क्षमता का निरंतर ह्रास करके, इक्कीसवीं सदी के डिजिटल युग में भी सदैव मानसिक अफीम के नशे में धुत्त रहने वाले समाज का बेरोकटोक निर्माण कर रहे हैं !!
क्या ! मानसिक अफीम को अलग-अलग रंग के कैप्सूलों व इंजेक्शन के रुप में खुले आम बेचने वाले समाज में उच्च सम्मान व सुरक्षा प्राप्त सौदागरों से निपटने के लिए भी डिजिटल इंडिया में कोई कठोर डिजिटल कानून बन सकेगा !! स्थिति बद से बदतर होती जा रही है ! शीघ्र लगाम लगाना बहुत आवश्यक है।
     हालांकि सुना है .. " मेरा देश बदल रहा है ! "
     सोचता हूँ यदि फिर भी स्थिति नहीं सुधरती तो जो लोग मानसिक अफीम सेवन से अभी दूर हैं या इस नशे के आदी नहीं हुए हैं उन्हें संगठित होकर पहल करनी ही होगी ! इस अफीम के सौदागरों को सबक सिखाना ही होगा !!

मदारी !!



           

मदारी  !!

 बचपन में आपने भी ऐसे मानसिक खेल खेले होंगे जिनमें मानसिक एकाग्रता की आवश्यकता होती थी. इस प्रकार खेल-खेल में मानसिक व्यायाम भी हो जाता था.
            दो खेल काफी प्रचलित थे १- तोता उड़...मैना उड़ .. २- ऊँच-नीच का पापड़ा ..
            इन खेलों में एक निर्देश देता था और अन्य सभी साथी, निर्देशों उनका पालन करते थे..प्रारंभ में निर्देशों की आवृत्ति कुछ लम्बी लेकिन जब कोई भी गलती नही कर रहा दीखता था तो निर्देशों की आवृत्ति भी बढ़ा दी जाती थी !! आवृति बढ़ जाने से यंत्रवत निर्देशों का पालन करने वाले, निर्देशानुसार पालन न कर पाने के कारण आउट हो जाते थे, लेकिन हारने के बाद भी, पराजित भाव में शरमाते हुए स्वयं की गलती पर स्वयं ही हँसकर अपना मन हल्का करना चाहते थे !! दूसरे उनकी गलत पर ताली बजा-बजा कर मजाक बनाते हुए खूब हँसते थे !!
             बचपन में मदारी का तमाशा देखने की भी बहुत उत्सुकता रहती थी. मदारी दिखा नहीं की सारे बच्चे मदारी के पीछे-पीछे चल देते थे !! हालाँकि उसके पास वही दिखे-दिखाए खेल होते थे लेकिन !! हर बार नया मदारी पुराने मदारियों से हटकर, अपने ख़ास अलग अंदाज़ में प्रस्तुतीकरण से सबको सम्मोहित कर, बच्चों ही नहीं वयस्कों और बूढों को भी, नया खेल देखने की उत्सुकता में रुकने को मजबूर कर देता था !      

          लेकिन उसके पास कोई अलग खेल नही होता था वही पुराने देखे - दिखाए खेल !  
         अंत में लोग स्वयं को ठगा महसूस करते हुए भी उसको कुछ न कुछ पैसे देते हुए धीमे-धीमे कदमों से वहां से चल देते थे. इस पर भी कोई मदारी को उल्टा सीधा नहीं कहता था,यदि कोई व्यक्ति अपनी नाराजगी जताता भी था तो उसका स्वर बहुत धीमा होता था,मदारी दैन्य भाव में अपनी रोजी रोटी का हवाला दे कर उसको शांत कर देता था.. व्यक्ति का धीमा स्वर अपने मस्तिष्क का विवेकपूर्ण उपयोग न करने की गलती के आत्मबोध का परिणाम ही होता था !! लेकिन अधिकतर लोग विरोध करने पर, हंसी का पात्र बनने के भय से चुपचाप चले जाते थे !!
       उम्मीद करता हूँ कि इस आलेख  का परोक्ष आशय आप समझ ही गए होंगे !