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Thursday 1 October 2015

हमारी स्वस्थ सांस्कृतिक परम्पराएं


हमारी स्वस्थ सांस्कृतिक परम्पराएं


                   गाँव में भी तेजी से शहरी फटाफट संस्कृति पाँव पसार रही है. दूर दराज के गाँव में अब भी संस्कृति की जड़ों को खाद-पानी मुहैय्या हो रहा है..
                  दगड्यों पंगत मा बैठि तैं माळु का पत्तल मा भात दाल सपोड़्न् कु और व्वे का बाद मिट्ठा भात खाण कु आनंद हि अलग छौ। अब कि बराति्युँ मा बेशक बानि बानि का पकवान बण्यां रंदन पर खड़ा खड़ी खाण मा न आनंद औंदु न धीत भरेंदी .. मैं त घौर बिटि डट्ट खै तैं ब्यो बरातियों मा जांदु छौं .. याद करा दौं दग्डि़यों पैलि सरोळा जी घमा घम जल्दा बल्दा भात का ढिक्का पत्तलों मा डाळ्दा छा, कबारि कबारि त दाल काणा पुड़खों का छेद बिटि सर्रर्रर .... निकळ जांदिं छै, खूब खिकचोट मचदु छौ हैंस्दा हैंस्दा खाणौं पिणु ह्वै जांदु छौ ।पोटगि भी डम भरे जांदि छै अर धीत भी !! दग्ड़ियों कतना भलु लग्दु छौ ना !!


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