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Wednesday, 20 April 2016

राग “ खिसियाना “ !!!



राग “ खिसियाना “ !

       शीतनिद्रा में पड़े मेंढकों को स्वप्न में वर्षा होने का आभास हुआ तो क्या बूढ़े ! क्या जवान !! अधिकतर मेंढक अपनी सिकुड़ी खाल को "तरेरते” हुए, सर्दी के मौसम में सुसुप्तावस्था के नशे में टर्र-टर्र का करते हुए जमीन से बाहर निकल आये! लेकिन चपलता अभाव में लतियाये गए और बिन वर्षा, प्रतिकूल मौसम के कारण गिरते-पड़ते, बीमार होकर पुन: भूमिगत हो जाने को मजबूर हुए !!
खैर ! कुछ लोगों की भी समय प्रतिकूल टर्राने की आदत होती है !! अब मुद्दे पर आता हूँ ..परसों की ही बात है मेरे अज़ीज़ मित्र आनंद साहब ने अपनी ईमानदारी की गाढ़ी कमाई से सुन्दर मकान बनाया और गृह-प्रवेश के अवसर पर मुझे सपरिवार आने का निमंत्रण दिया, मेरे पड़ोस में रहने वाले खन्ना साहब भी उभय परिचित थे, उनको भी निमंत्रण मिला, इसलिए हम साथ ही आनंद साहब के यहाँ नियत समय पर उपहार लेकर बधाइयां देने पहुँच गए, आनंद साहब अपने हंसमुख व मिलनसार अंदाज में गर्मजोशी से हमारा स्वागत करने ..जैसे पहले से ही तैयार थे !!
         चाय पान के साथ खुशनुमा माहौल में बातों का दौर शुरू हुआ ..सभी आनंद साहब के सुन्दर घर की तारीफ करते नही अघा रहे थे और आनंद साहब सरल व सौम्य अंदाज में सभी का शुक्रिया अदा कर रहे थे ..
      लेकिन मेरे साथ पहुंचे खन्ना साहब ने यह कह कर कि..”. आनंद साहब, आपने घर तो बहुत अच्छा बनाया लेकिन इस कालोनी में गुप्ता जी जैसा सुन्दर घर किसी का नही “..कहकर ..उल्लासपूर्ण माहौल में जैसे छींक मारकर सबको हैरत में डाल दिया.माहौल में जैसे सन्नाटा पसर गया !!.सब एक दूसरे के चेहरे के भावों का मूल्यांकन करते एकाएक चुप हो गए !!..
      खैर, बेहतरीन व्यक्तित्व के धनी आनंद साहब ने माहौल को बदलने के प्रयास में साथियों का हालचाल पूछने लगे !! और कक्ष से बाहर काम का बहाना कर चले गए . उनके मनोभावों से ऐसा लगता था जैसे वे अपने आवेशित भावों को नियंत्रण में रखने के अनियंत्रित प्रयास में अंतर्द्वंद में उलझ रहे हैं !!
       आनंद साहब की उपस्थिति के कारण ही सब संकोच कर रहे थे ... उनके जाते ही खन्ना साहब की जो छिछालीदर हुई, उसपर उनको वहां बैठते नही बन रहा था .. किसी तरह वहां से सपरिवार, कहीं और निमंत्रण का बहाना बनाकर बिना भोजन किये जाने को विवश हुए !!
             कमोवेश, माहौल के विपरीत स्वरालाप (बेशक घूंघट की आड़ में ही सही) द्वारा अपनी खीज निकालना !! ,आजकल “ विद्वता” का प्रतीक बन गया है !! और जब तथाकथित विद्वान यह खीज खुलमखुल्ला प्रदर्शित करते दिखाई देते हैं तो छुटभैय्या साथियों के भी पौ बारह हो आते हैं, बेशक उन्हें खन्ना साहब व सपरिवार तरह शर्मिंदगी झेलनी पड़े या बेमौसम बाहर निकल आये मेंढकों की तरह लतियाये जाने पर भूमिगत होने को मजबूर होना पड़े !!! ^^ विजय 


राजनीति की “ गंगा “



राजनीति की  “ गंगा “

       बेशक हम प्रत्यक्ष रूप से किसी राजनीतिक दल के प्रति अपनी प्रतिबद्धता स्वीकार न करें लेकिन वोट तो हम किसी न किसी राजनीतिक पार्टी को देते ही हैं. लिहाजा हमारे विचारों और चिंतन में उस राजनीतिक दल या विचारधारा की छाया, सावधानी बरतने के बाद भी आ ही जाती है.
        रोचक बात ये है कि स्वयं को किसी राजनीतिक दल या विचारधारा से न जुड़े होने का दावा करने वाले अधिकतर लोग ही सदैव किसी राजनीतिक दल के पक्ष में खड़े दिखते हैं !!
      मैं भी यह मानता हूँ कि राजनीतिक चिंतन निरर्थक नही, राजनीतिक चिंतन का अभाव, विचार स्थिरता और निरंकुशता को जन्म देता है. परन्तु सोचता हूँ कितना अच्छा और राष्ट्र हित में होता यदि हम हर अच्छे प्रयास का, दलगत राजनीति से ऊपर उठकर ..” किन्तु..परन्तु.. लेकिन “ ..आदि में न उलझकर, खुले दिल से स्वागत करते !!.. क्या हमारे पास हर कार्य का विरोध करने के अलावा कोई और मुद्दा नही ??
        अक्सर देखता हूँ यदि कोई राजनीतिक दल कोई नया काम करता है तो या तो उस पर छिद्रान्वेषण, आलोचना व विरोध प्रारम्भ कर दिया जाता है और यदि समाज में अधिसंख्यक स्वीकार्यता के चलते यह संभव न हो पाता तो चुप्पी साथ ली जाती है. इस उपक्रम के पीछे सराहना न कर सकने की मनोवृत्ति साफ़ झलकती है !! क्योंकि कुछ लोगों की संकीर्ण मानसिकता यह कहती है कि सराहना करने से सम्बंधित दल को फायदा हो सकता है.. और यदि सराहना करने की मजबूरी आन ही पड़ी !! तो,शब्दों को इस प्रकार साध कर सराहना की जाती है कि कहीं सम्बंधित दल की अच्छे कार्य के लिए सीधे-सीधे प्रशंसा किये जाने का संकेत समाज में न पहुँच जाए !! ऐसा करने पर उनको जनाधार सिमटने व अपनी विचारधारा के पराभाव का भय सालता है !!
         यदि आप उनकी दलगत चट्टान से निकली राजनीतिक “ गंगा “ में नहायेंगे तो ही पवित्र हैं !! परन्तु उनकी ‘ गंगा “ से हटकर, यदि आप गंगोत्री से निकलने वाली गंगा में नहा लिए तो आपकी पवित्रता पर संशय किया जा सकता है !! आजकल कई राजनीतिक दलों ने यह चिंतन अपनाया हुआ है. जब दूसरा दल कुछ करे तो पानी पी-पी कर उसका विरोध तय है लेकिन जब वो स्वयं करते हैं तो उसी बात को सही ठहराने के लिए उन दलों के प्रवक्ताओं के पास एकाधित तर्क तैयार मिलते हैं. यहाँ “ उसकी साडी मेरी साडी से अधिक सफेद कैसे !! वाला भाव, नकारात्मक रूप में स्पष्ट परिलक्षित होता है ।
        गंगा एक ही है जो कि सास्वत सत्य है उसका प्रवाह हम बाँध बनाकर कुछ समय तक रोकने का प्रयास तो कर सकते हैं लेकिन चिरकाल तक ऐसा कर पाना संभव नही !! क्या ही अच्छा होता हम अच्छे कार्यों का खुले दिल से स्वागत और गलत कार्यों का सशक्त विरोध करने की मनोवृत्ति को विकसित व प्रदर्शित कर पाते.. अर्थात अपने खोटे सिक्के को “ खोटा “ कह सकने की हिम्मत जुटा पाते !! काश !!हम दलगत निष्ठाओं से ऊपर उठ पाते तो शायद सही और गलत का वास्तविक मूल्यांकन हो पाता !! जो राष्ट्र की तरक्की में सहायक होता !! ^^ विजय 


लोकतंत्र का पर्व



चुनाव : लोकतंत्र का पर्व !! या सिर्फ मदारी का खेल !!

        कितना अच्छा होता !! समाज में धीरे-धीरे ही सही परन्तु एक सकारात्मक बदलाव आता और सभी राजनीतिक दलों के नेताओं को सुनने, दलगत राजनीति से ऊपर उठकर, स्वेच्छा से लाखों की संख्या में, आम जनता पहुँचती और “जिंदाबाद”, “मुर्दाबाद” और “हाय-हाय’ के नारों के उद्घोष के विपरीत, प्रमुख नेताओं को धैर्यपूर्वक सुनती, लुभावने भाषणों का स्व मूल्यांकन करती !! नेताओं से उनके लोक लुभावनी योजनाओं की कार्य योजना व उन योजनाओं की सफलता हेतु अपेक्षित संसाधनों की उपलब्धता व स्रोतों के बारे शालीनतापूर्ण व द्वेषरहित माहौल में खुले मन से प्रश्न करती !!
         शायद इस प्रक्रिया से चुनाव रैलियों, प्रचार व अन्य चुनाव आधारित अनियंत्रित व्यय पर काफी हद तक नियंत्रण पाया जा सकता है क्योंकि चुनाव पर होने वाला प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष व्यय अन्ततोगत्वा आम आदमी की ही जेब ढीली करता है.इससे समाज में ध्रुवीकरण को पोषित करने वाले वक्तव्यों, जो कई बार जातिवादी व धार्मिक उन्माद या असंतोष में परिवर्तित होकर सामाजिक सौहार्द पर कुठाराघात करती हैं, पर लगाम लग सकती है.
        रैली किसी भी राजनीतिक दल की हो, वहाँ जनता, जिस राजनेता को सुनने पहुंचती है उसके बारे में स्वप्न में भी नकारात्मक नही सुनना चाहती !!
      मेरे विचार से हमारे देश में विकसित “ लोकतंत्र “ में यही सबसे बड़ी कमी है !! यहाँ हम जिस राजनीतिक दल से भावनाओं से जुड़े हैं उस दल या व्यक्ति के बारे में कुछ भी नकारात्मक (भले ही वह सत्य तथ्यात्मक व व्यावहारिक सत्यता लिए ही क्यों न हो) सुनते ही आवेशित हो उठते हैं !! और कुतर्क पर उतारू हो जाते हैं !
       अगर वर्तमान ढर्रे पर ही हमारा लोकतंत्र चलता रहा तो रोज़ नए मदारी द्वारा, सांप नेवले की लड़ाई दिखाने की आस में हम उसकी तरफ आकर्षित होते रहेंगे और वो दूसरे मदारियों की तरह, अपने चिर-परिचित, घिसे-पिटे देखे-दिखाए खेल दिखाकर, अपनी गठरी बांधकर आगे बढ़ जाएगा. क्योंकि मदारी की भी मजबूरी है !! सांप नेवले की लड़ाई दिखाकर वह कभी अपनी रोज़ी-रोटी को समाप्त नही करना चाहेगा !! सांप ही उसकी रोज़ी-रोटी का जरिया है !! जिसे बार-बार दिखाकर वह आम जनता को इकठ्ठा करता है !! इस लडाई के बाद आम जनता को आकर्षित करने वाला सांप, नेवले द्वारा मारा दिया जाएगा !!
    ये तो मेरी मूढ़ बुद्धि की एक निजी संकल्पना मात्र है !!
     बहरहाल छोड़िए ये सब बेकार की बातें हैं !!
चलते हैं !! चौक में “ डुग-डुगी “ की आवाज़ और बच्चों के कौतूहलपूर्ण स्वर ऊँचे होते जा रहे हैं !! शायद फिर कोई नया मदारी आया है !! आज ये मदारी तो जरूर-जरूर “ सांप-नेवले “ की लडाई दिखायेगा !! 


ये किस कवि की कल्पना



" ये किस कवि की कल्पना ....!!! ये कौन चित्रकार है ......!!"
10 दिसंबर 1986 को प्रारंभ गृहस्थी का सफ़र,जिसमें अलग-अलग पड़ावों पर दो नए हमसफर (बेटी, दीपिका व बेटा चैतन्य) साथ हो लिए, ऊँचे-नीचे मार्गों से गुजरता हुआ अगले  पड़ाव की ओर बढ़ चला 


Tuesday, 12 April 2016

गाहे बगाहे !



गाहे बगाहे ! बस यूँ ही ! तस्वीर कौतुक

              कल सिनेमा देखने का मन हुआ .. शो प्रारंभ होने में कुछ वक्त था.. सोचा ! बैंच पर बैठे इन महोदय से मुखातिब हो लिया जाए !
             वैसे तो लंबू भाई शॅापिंग मॅाल के अन्दर की दुनिया के रंग बिरंगे नजारों को आराम से बैंच पर बैठकर देखते हुए मौज में नज़र आते हैं मगर ..
रूबरू होने पर हकीकत पता लगी !
             जनाब ने छूटते ही .. किसी खंडहर की दास्ताँ सुनाने की फरमाइश कर डाली !! बातों का सिलसिला आगे बढ़ा तो लंबू भाई ने अपना दर्द-ए-दिल भी बयाँ कर दिया .. बताया ... उजालों की चकाचौंध दुनिया के बाद रात के सन्नाटों में खुद को बहुत अकेला पाते हैं ! रात काटे से नहीं कटती !! ख्यालों में यूँ ही तन्हा बैठे-बैठे गुमसुम गुजर जाती है !
            सोचता हूँ .. व्यक्ति के चेहरे पर प्रदर्शित सदाबहार मुस्कराहट जरूरी नहीं कि सदैव उसकी प्रसन्नता का ही द्योतक हो .. सदाबहार मुस्कराहट, व्यक्ति की विपरीत परिस्थितियों में जीवटता बनाये रखने के गुण को भी प्रदर्शित करती है .. 


Thursday, 7 April 2016

ठाले ठाले बस यूँ ही ..




ठाले ठाले बस यूँ ही ..

     हर व्यक्ति और राजनीतिक दल नैतिक मूल्यों, आदर्शों व शुचिता की बात करता है लेकिन ... ढ़ाक के वही तीन पात !!
      कल्पना ही सही !! लेकिन यदि एक ऐसे राष्ट्रीय राजनीतिक दल का गठन हो जाए जिसमें सार्वजनिक रूप से कबूलनामे द्वारा स्वयं को साधु घोषित कर चुके, दल बदलू, विश्वासघाती, थनपति, अवसरवादी, भ्रष्टाचारी, बाहुबली, माफिया, तस्कर, नक्सली, धार्मिक उन्मादी, बलात्कारी, रसिक मिजाज, हत्यारे, आतंकी, विदेशों में धन रखने वाले, जमाखोर, कालाबाजारी, सुपारीबाज, बैंकों का कर्ज डकारने वाले उद्योगपति .. (जो " विशिष्ट क्षेत्र" छूट गए हैं उनको आप स्वयं जोड़ सकते हैं) .. जैसे लोग ही स्वयं द्वारा पूर्व में किये गए " कारनामों " की "विशिष्टता" के आधार पर चुनाव प्रत्याशी बनने के योग्य समझे जाएं !! तो कुछ अलग तरह के राजनीतिक व सामाजिक समीकरण बन सकते हैं !!
      फौरी तौर पर है तो बेसिर पैर की बात ! चलिए ! फिर भी कभी -कभी निठल्ला चिंतन ही सही ! क्योंकि "लोकतंत्र" में कुछ भी संभव है ! यदि राजनीतिक दलों में पहले से ही सम्मिलित या सम्बंधित इस तरह के " हुनरमंद " लोगों को उचित "सम्मान" न मिला तो भविष्य में सरकारों को गिराकर निश्चित ही ये सभी लोग एक मंच पर आकर एक अलग राजनीतिक दल बना सकते हैं !! आखिर कब तक ये लोग खुद नकाब में रहकर, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दूसरे दलों की सरकारें बनाने में सहयोग करते रहेंगे !! अगर विभिन्न दलों से जुड़े ऐसे लोग एक हो गए तो इस दल को पूर्ण बहुमत मिलना भी तय है !!
        इस लिए हमें पहले से ही "स्वागत-अस्वागत" के लिए तैयार रहना चाहिए !! अगर ऐसा संभव हुआ !! तो मुझे मुखौटा लगाये बड़ी बड़ी राजनीतिक दुकाने बंद होना तय लगता है !!


Saturday, 2 April 2016

राजनीति !!


राजनीति !!



        मूल्यरहित राजनीति के दौर में भी शुचिता व नैतिक मूल्यों का जीवन व्यतीत करने वाले जनप्रिय नेता, आदरणीय अटल जी को शुभ जन्म दिवस पर हार्दिक बधाइयाँ व शुभ कामनायें ।।
     1987 के आसपास की बात है तब बी जे पी का उत्तराखंड में खास जनाधार न था.माननीय अटल जी जनाधार मजबूत करने उत्तराखंड के तूफानी दौरे पर थे. रंवाई क्षेत्र की बात है उत्तराखंड राज्य हेतु जन मानस में उत्सुकता थी.
       एक जिज्ञासु ने माननीय अटल जी से उत्तराखंड राज्य गठन के सम्बन्ध में समर्थन व विचार जानने चाहे तो ..
      अटल जी ने पूछा, " आपको आखिर अलग उत्तराखंड राज्य क्यों चाहिए ?"
      प्रश्नकर्ता ने त्वरित उत्तर दिया, " हमारे यहाँ से लखनऊ की दूरी बहुत अधिक है और हमें हर काम के लिए लखनऊ जाना पड़ता है, बहुत समय और धन की आवश्यकता होती है !! " (तब उत्तराखंड राज्य गठन नही हुआ था तो उत्तराखंड वासियों को सचिवालय, उच्च न्यायालय आदि के काम से लखनऊ जाना होता था)
      माननीय अटल जी का इस तरह की मन स्थिति पर करारा जवाब था .. इस तरह तो फिर आप यह भी कहने लगेंगे .. यहाँ से दिल्ली बहुत दूर है !!!
     क्या आज की तुष्टिकरण द्वारा वोट बैंक की राजनीती में, इस तरह का जवाब कोई राजनेता दे सकने की कुव्वत रखता है ?? मुझे संदेह है !!!..
    माननीय अटल जी आपको व आपकी राष्ट्रीय अखंडता को समर्पित,राष्ट्रवादी सोच हेतु कोटिश: सादर नमन..
      उसी दौरान मुझे उत्तरकाशी निरीक्षण भवन में जन प्रिय नेता श्री अटल जी का करीब से साक्षात्कार करने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ था.
सोचता हूँ दलगत राजनीती से हटकर राष्ट्रवादी चिंतकों को अवश्य याद किया जाना चाहिए जिससे अगली पीढ़ी को प्रेरणा व संस्कार प्राप्त हों .
 
 

निट्ठल्ला चिंतन !!



निट्ठल्ला चिंतन !!

                 व्याकरणाचार्यों ने हर युग में और मानव की रग-रग प्रचुरता से व्याप्त व लोकप्रिय “निंदा रस” को प्रेम, श्रृंगार, वीर, रौद्र आदि रसों के साथ स्थान न देकर न जाने क्यों सदैव भेदभाव किया !! सृष्टि की उत्पत्ति से निरंतर इस रस के द्वारा पीड़ित व्यक्ति अपने मन के गुबार को बाहर निकालता है।     
          कभी-कभी व्यक्ति की स्वार्थ-सिद्धि में जिसने बाधा पहुँचाई, उसी के विरोध में रस के माध्यम से वह अपने गुबार को बाहर निकालता है. व्यक्ति के अंतर्मन को शांति पहुँचाने में इस रस की महती भूमिका है !!
          संभवत: वैचारिक आदान-प्रदान के दौरान जब किसी व्यक्ति यासमूहों की स्वार्थ-सिद्धि न हो पाई होगी तब इस रस की उत्पत्ति अंतर्मन से हुई होगी ! वैचारिक असमानता के कारण व्यक्तिगत स्वार्थों की तुष्टि न हो पाने की स्थिति में इस रस में भीगे तीक्ष्ण बाण पूरे समाज को ‘भेदन, कर सकने की अतुल्य सामर्थ्य रखते हैं!!
        बड़े-बड़े रजवाड़ों को छिन्न-भिन्न करने वाले इस रस से भीगे बाणों का कैकयी द्वारा प्रयोग और उनकी तीक्षणता और अचूक भेदन क्षमता पर भला कौन प्रश्न चिह्न लगा सकता है !! और तो और माता सीता के सतीत्व पर प्रश्न चिह्न भी इसी रस की परिणति थी !
        खैर ये तो गुजरे ज़माने की बातें हो गयी. आजकल ऑफिसों, कंपनियों में जिस कर्मचारी के पास इस रस का भण्डार है और सही समय पर यदि उसे इस रस में भिगोकर सही समय पर तीर चलाने में निपुणता है !! तो बिना काम किये वह अधिकारियों का कृपापात्र, विश्वास पात्र और आँखों का तारा बना रहता है !   राजनीतिक दलों व उनके समर्थकों में योग्यता की पहली पायदान “निंदा रस” में निपुणता ही है !!
        लगता है मैं भी कहीं न कहीं इस रस की महानता को दरकिनार कर रहा हूँ ! खैर मुद्दे पर आता हूँ इस रस का परोक्ष प्रयोग, स्वस्थ मनोरंजन एवं समय व्यतीत करने का सरल व सुलभ साधन है.क्या विद्वान् ! क्या अविद्वान !!सभी इस रस के छलकते प्यालों को देखकर रस को उदरित करने का लोभ संवरण नही कर पाते !! एक संयुक्त परिवार से कई एकल परिवार निर्माण में तो इस रस का कोई भी रस बराबरी नही कर सकता !!
      आलेख कुछ दीर्घ सूत्री सा होता प्रतीत हो रहा है !! बस यह कह कर अपनी बात को विराम देना चाहूँगा कि अंतर्मन की शांति को ही वास्तविक शांति कहा गया है और मानव की रग-रग में व्याप्त, अतुल्य सामर्थ्यवान “ निंदा रस “ इस कसौटी पर हर तरह से खरा उतरता है !!! तो क्यों न इस रस को अन्य रसों की तरह सम्मानित स्थान प्रदान किया जाय !! 

स्वस्थ व समृद्ध विरासत : संक्रमण काल



स्वस्थ व समृद्ध विरासत : संक्रमण काल

          पारंपरिक संगीत व नृत्य किसी भी संस्कृति के दर्शन हेतु स्वच्छ व स्पष्ट दर्पण होता है, आधुनिकता की ओट में व्यावसायिक मनोवृत्ति के तुष्टिकरण हेतु लोक संगीत में हिंदी फिल्मों की फूहड़ता का मिश्रण, उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति पर कुठाराघात है जो सामाजिक सहिष्णुता व समरसता में धीमे जहर की तरह नकारात्मक योगदान दे रहा है, इस कारण यह गंभीर चर्चा व चिंता का विषय बन गया है, संक्रमण काल में ही, समय रहते, समाज के प्रबुद्ध व नेतृत्व करने वाले वर्ग द्वारा समृद्ध विरासत को बचाए के लिए, फूहड़ता को तहेदिल से हतोत्साहित किया जाना अति आवश्यक है. इससे समाज में सकारात्मक सन्देश पहुंचेगा जिससे कलाकार,सकारात्मक सृजन की ओर उन्मुख होंगे ..
        ऐसा नही कि फूहड़ता भरा संगीत और नृत्य, पारंपरिक संगीत और नृत्य पर पूर्णतया हावी हो चुका है, आज भी शादी, पार्टी आदि में आधुनिक बैंड बाजों के मुकाबले,पारंपरिक वाद्ययंत्रों के स्वरों (ढोल-दमाऊ और मूसकबाजा) पर स्वाभाविक रूप से थिरकने वालों की संख्या अधिक ही देखने को मिलती है. आखिर संख्या अधिक क्यों न हो !! जन्म-जन्मान्तर से जो संगीत रग-रग में रचा-बसा है उस पर मन स्वाभाविक रूप से मयूर नाच उठता है और इस स्वाभाविक थिरकन से तन और मन, दोनों, हल्का महसूस करते है.