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Tuesday, 27 October 2015
Wednesday, 21 October 2015
जब मैं पहाड़ के नीचे से गुजरा !! : संस्मरण
जब मैं पहाड़ के नीचे से गुजरा !!
( निवेदन : ये कौतुहल जनित और निहायत व्यक्तिगत संस्मरण है इसका उद्देश्य किसी भी तरह से अंधविश्वास को पोषित करना नहीं है.)
कल एक जिज्ञासु की जन्म कुंडली लेकर परिचित अच्छे ज्योतिष, पंडित जी के पास पहुंचा और जिज्ञासु का प्रश्न प्रस्तुत किया. पंडित जी ने पूर्ण मनोयोग से कुंडली का अध्ययन किया और फलित बताया लेकिन मैं पूर्ण संतुष्ट नहीं हो पाया !!
मैं उस जिज्ञासु की हस्तरेखा का अध्ययन पहले ही कर चुका था तो अंत में मैंने सकुचाते हुए पंडित जी से, जो उस जिज्ञासु की हस्तरेखा देखकर फलित अनुभूत किया था, साझा किया, पंडित जी ने फिर से लेपटॉप निकालकर गणना शुरू की !! तो मेरे आंकलन से पूर्ण सहमती जताई !!
पंडित जी ने उत्सुकता व कौतुहलवश अपने बेटे का भी हाथ देखने का आग्रह किया !! अब तो जैसे ये बिना पूर्व निर्धारित समय सारणी के ही मेरी त्वरित परीक्षा ली जा रही थी !!
मेरा नर्वस होना स्वाभाविक था ! क्योंकि पंडित जी स्वयं अच्छे पेशेवर ज्योतिष हैं ! आत्मविश्वास डोलने लगा और सोचने लगा !! विजय जयाड़ा !! आज आया तू पहाड़ के नीचे !!
खैर, आत्मविश्वास बटोरकर फलित वाचना प्रारम्भ किया और जो कुछ कहा, उसकी सत्यता को क्रॉस चैक करने के लिए, जिज्ञासु भाव से पंडित जी से ही जानना चाहा.
पंडित जी आश्चर्यचकित होकर कहने लगे, मास्टर जी .. हम तो कुंडली से शुभ-अशुभ समय का काल निर्धारित कर देते हैं लेकिन आपने तो, हस्त रेखाओं से ही घटनाओं का बहुत सटीक काल निर्धारण कर लिया !! फिर मेरे पास क्यों कुंडली लेकर आते हो. मैंने कहा महोदय मैं शौकिया हूँ और आप पेशेवर !! लिहाजा,अधिक अनुभव होने के कारण आपका ज्ञान पुख्ता है। आपके पास आकर मैं स्वयं द्वारा आंकलित फलित को क्रॅास चैक कर लेता हूँ जिससे मेरा आत्मविश्वास बढ़ता है ..
संस्मरण द्वारा स्वयं को प्रचारित की मंशा कदापि नहीं है। जिज्ञासुओं के बढ़ते विश्वास के उपरान्त घर पर आने वाले जिज्ञासुओं की बढती संख्या के कारण, मैं यह काम लगभग आठ वर्ष पूर्व ही बंद कर चुका हूँ, लेकिन पहली बार पहाड़ के नीचे से गुजरने के बाद जो आत्मविश्वास हासिल हुआ वो पहले कभी नहीं हुआ था !!
इतना अवश्य कहूँगा कि.....
किसी भी क्षेत्र में अर्जित ज्ञान, समाज द्वारा हमारी सहज स्वीकार्यता बढ़ाता है..
Friday, 9 October 2015
गडरिया !! : एक निरपेक्ष अमूर्त चिंतन
गडरिया !! : एक निरपेक्ष अमूर्त चिंतन
देश के एक बड़े बूचड़ खाने, गाजीपुर बूचड़ खाना, जिसमे आधिकारिक तौर पर प्रतिदिन 1500 भेड़ें काटी जाती हैं, की तरफ से गुज़र रहा था तो राजधानी की अच्छी-खासी 'चौड़ी चमकदार सड़क' पर भेड़ों को 'चराकर' बूचड़खाने की ओर हांकता 'गडरिया' दिखा. आदतन, बाइक रोकी और दृश्य को मोबाइल से क्लिक कर दिया.'भेड़ों' के इस ,बड़े झुण्ड, में अलग-अलग 'रंगों' से रंगी भेड़ों के 'छोटे-छोटे झुण्ड' अलग से स्पष्ट दिख रहे थे, जिससे स्पष्ट हो रहा था कि भेड़ें 'कई टोलों' से एकत्र की गयी हैं. लेकिन दूर से सभी भेड़ें सफेद, 'एक ही रंग' की दिख रही थीं। सभी एक साथ 'एक ही दिशा' में 'अनुशासन' में चल रही थी !! अब इसे क्या कहूँ .. 'गडरिये' का कुशल नेतृत्व, कुटिलता, स्वार्थसाधना, रोजगार का तकाजा कहूं या भेड़ों की मजबूरी, अज्ञानता, गडरिये पर विश्वास या कुछ और !!.
लेकिन सोचता रहा कि यदि इन 'भेड़ों' को किसी तरह गडरिये की 'मंशा' का पता लग जाय तो क्या इस एक 'गडरिये' को इतनी सारी 'भेड़ों' पर अकेले काबू पाना आसान होगा !!
खैर !! छोड़िये. फिर देखता हूँ ..'व्यस्त सड़क' पर इन भेड़ों के निकल जाने के इन्तजार में कुछ 'गाड़ियां' खड़ी थी कुछ गाड़ियां भेड़ों से दूरी बना कर चल रही थी. 'पैदल यात्रियों' का भी यही हाल था !!
गंतव्य पर पहुंचकर भेड़ों की नियति क्या होगी !! ये तो आप और मैं भली-भांति समझ ही सकते हैं !! और हम कुछ कर सकने में भी ' असमर्थ' हैं !! लेकिन इस मूर्त दृश्य को देखकर, मन में, समाज में अमूर्त रूप से उपस्थित इस तरह के अनेकों दृश्य अलग-अलग रंग व रूपों में जीवंत हो उठे !!
Tuesday, 6 October 2015
बेटी “ सम्मान और संबंधों का मजबूत सेतु “ .. लघु कथा
बेटी
“ सम्मान और संबंधों का मजबूत सेतु “
“ देख !! तपती गर्मी में भाई स्कूल से आये हैं !! जल्दी से भाइयों के लिए ठंडी लस्सी बना और खाना परोस !!! “
तपती गर्मी में स्कूल से आई टपकते पसीने को पोंछती नेहा ने अभी घर के अन्दर कदम भी नही रखा था कि पड़ोसन से गप्पे करती माँ तल्ख़ लहजे में बोली. नेहा के लिए ये सब कोई नयी बात नहीं थी. लेकिन मन ही मन सोचती कि वो भी तो तपती गर्मी में भाइयों की तरह ही स्कूल से आती है !!
आज नेहा मन ही मन खुश थी, भाइयों की जिद्द पर ही सही घर पर दो-चार नहीं !! पूरे बारह समोसे आये थे !! लेकिन ये क्या !! माँ ने सारे समोसे दोनों भाइयों को ही दे दिए !! नेहा ललचाई से टुकुर-टुकुर भाइयों को समोसे खाते देख रही थी !!
हमेशा की तरह उसके हिस्से में समोसों की टूटी सख्त किनारी ही आ सकी !! मन मसोस का रह गयी नेहा !! कह भी क्या सकती थी माँ ने बचपन से ही पहले भाइयों को मन भर कर खिला कर बाद में जो बच जाए उसे खाकर संतोष कर लेने का “संस्कार “ ये कहते हुए डाल दिया कि “लड़की जात है पता नही ससुराल कैसी मिले !! फिर ससुराल वाले हमें उलाहना देते फिरेंगे !! “
इन्ही सब हालातों में बचपन कब पंख लगाकर उड़ गया, नेहा को अहसास ही न हुआ !! वह ब्याह कर ससुराल आ गयी. विवाह की औपचारिकताओं के बाद, अगले दिन मुंह अँधेरे ही सुबह उठकर घर के काम में लग गयी, सासु माँ उसे रोकती पर वो सहजता और तन्मयता से फिर से काम में लग जाती.
भोजन का समय हुआ तो डाइनिंग टेबल पर सबके लिए खाना करीने से लगा स्वयं मायके में मिले, सबसे अंत में खाने के “संस्कार” का अनुसरण करती हुई रसोई में बचा-खुचा काम निपटाने लगी !!
“ नेहा !!..नेहा !!!” नेहा को रसोई में गए कुछ ही समय हुआ था कि सासू माँ की ऊंचे स्वर में आवाज सुनाई दी !! नेहा का तो घबराहट से बुरा हाल था !! मन ही मन नकारात्मक बातें ही उसके मन में आ रही थी .., पता नही खाना बनाने में उससे क्या गलती हो गयी ??. अब तो, उसको और उसके मायके वालों को क्या-क्या उट पटांग सुनने को मिलेगा !!
खैर डरी-सहमी और सिकुड़ी, डाइनिंग टेबल के पास अपराध बोध में, नजरें झुकाकर, सासु माँ के पास जाकर मूर्तिवत खड़ी हो गयी, लगभग हकलाते हुए घबराहट भरे स्वर में बोली, “ जी...जी .. माँ जी “
” हम कब से, साथ में भोजन करने के लिए तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं !! कुर्सी सरकाकर नेहा के लिए जगह बनाती सासु माँ ने शिकायती मगर ममता भरे लहजे में कहा. वह सांसत में थी !! मायके में मिले “संस्कारों” की दुहाई देती है तो मायके वालों के बारे में पता नही क्या-क्या उल्टा सोचेंगे !! “ लाइए, माँ जी.. .आप आराम से बैठिये, मैं परोस लेती हूँ !! नेहा स्वयं को सहज व संयत करने का प्रयास करती हुई. भोजन परोसने लगी !!
सासु माँ के इस अपनत्व भरे व्यवहार पर नेहा के आँखों में ख़ुशी के आंसू आने को थे !! लेकिन मायके के “संस्कारों “ की खिल्ली न उड़ाने लगें, मन ही मन यह सोचते हुए वो आंसुओं को छिपाने के प्रयास में स्वयं से लगातार जूझ रही थी.
शायद ! आज नेहा को अपने अस्तित्व व महत्व का करीब से अहसास हुआ था !! लेकिन वो अब भी मायके और ससुराल, दो परिवारों के बीच, “ सम्मान और संबंधों का मजबूत सेतु “ बना रहना चाहती थी .
.. विजय जयाड़ा
Monday, 5 October 2015
राजा नंगा है
राजा नंगा है
काफी समय पहले पढ़ी, हैंस क्रिश्चियन एंडरसन द्वारा लिखित “ राजा नंगा है “ आज भी प्रासंगिक है और समाज को सही दिशा दे सकने में समर्थ है.एक राजा को कपड़ों का बहुत शौक था. वह देश-विदेश के दर्जियों से वह कपड़ों के डिजायनों की बात करता रहता था. जो भी उसके कपड़ों की प्रशंसा करता उसको वह बहुत इनाम देता था
दो विदेशी ठगों ने राजा को ठगने की योजना बनायीं. राजा के सामने उपस्थित हो उन्होंने कहा हम आपके लिए सोने और हीरे के धागों से बनी ऐसी पोषाक बना सकते हैं जिसको किसी ने सपने में भी नही देखा होगा. लेकिन शर्त ये है कि उसको मूर्ख और पद के अयोग्य व्यक्ति नहीं देख सकता है !!
राजा ने बहुत सारा सोना और हीरा साथ में सूत तैयार करने के लिए दो खडडियाँ लगाकर पोशाक तैयार करने का आदेश दे दिया. ठग दिन-रात खडडियों के चक्कर लगाते काटने लगे मानो वे कपडा तैयार कर रहे हों जबकि वे कपडा बनाने का अभिनय कर रहे थे..
कई दिन बीत जाने के बाद राजा ने एक मंत्री से काम में तरक्की देखने को कहा.. मंत्री दर्जियों के पास पहुंचा तो वहां उसे खडडियों के अलावा कुछ न दिखा. लेकिन राजा उसे मूर्ख व पद के अयोग्य न समझे इसलिए उसने वापस आकर राजा से कहा, “ हुजुर बहुत बढ़िया कपडा तैयार हो रहा है “ राजा बहुत खुश हुआ. उसने समय-समय पर कई मंत्रियों को भेजा लेकिन सभी ने तैयार हो रहे कपडे को बहुत सुन्दर बताया !!
अब राजा के मन में भी जिज्ञासा हुई वो भी वहां गया लेकिन उसको कुछ न दिखाई दिया तो वो सोचने लगा, क्या मेरे मंत्री मुझसे भी अधिक बुद्धिमान हैं !! क्या मैं मूर्ख हूँ !! क्या मैं राजा के काबिल नहीं !! लेकिन फिर उसने सोचा, ये बात किसी को पता नहीं लगनी चाहिए. ये सोचकर राजा ने खडडियों की तरफ देखकर कहा, “ कितना सुन्दर कपडा है, सोने और हीरे की कितनी सुन्दर बुनाई की गयी है!!” महल में पहुंचकर राजा ने दरबारियों से कहा अगले सप्ताह एक बड़ा जुलूस निकलना उसमे में नए कपड़े पहनकर निकलूंगा.
आखिर वो दिन भी आया ठगों ने राजा को कपडे उतारने को कहा और ऐसे हाव-भाव दिखाए जैसे वे सच में राजा को नयी पोशाक पहना रहे हों !! दरबारी और मंत्री स्वयं को मूर्ख और पद के अयोग्य समझे जाने के भय से वाह-वाह किये जा रहे थे.
राजा नंगा ही हाथी पर सवार होकर राज्य में निकल पड़ा दरबारी पीछे-पीछे ..रास्ते में भीड़ भी मूर्ख समझे जाने के भय से राजा के कपड़ों (जो कि वास्तव में थे ही नहीं) की तारीफ में वाह-वाह करती, लेकिन तभी भीड़ में से एक बच्चा बोल पड़ा, ‘राजा नंगा है, उसके पास कपडे नहीं हैं ! “
यह सुनकर बच्चे के पिता ने कहा इस बच्चे की बात सुनो, “ यह कह रहा है कि राजा नंगा है !! “
फिर तो भीड़ भी चिल्लाने लगी “ राजा नंगा है !! राजा नंगा है !!”
अचानक राजा को अहसास हुआ कि ठगों ने उसको ठग लिया है. उसे शर्म आई लेकिन असली बात को जाहिर करने में उसे और भी शर्मिंदगी महसूस हुई ! इसलिए उसने लोगों को यही दिखाया कि लोग गलत है और वो सही है !! शान से वह जुलूस में आगे बढ़ता रहा जैसे उसने बहुत शानदार कपडे पहन रखे हों !! भीड़ अब भी चिल्ला रही थी, “ राजा नंगा है !! राजा नंगा है !!”
प्रश्न उठता है कि क्या सच को सच और गलत को गलत कह सकने की बच्चे जैसी निश्छल मासूमियत हम में है !!
बेशक, अपनी मन: स्थिति को संतृप्त करने व व्यक्तिगत स्वार्थों के चलते, विवेक को गिरवी रख देते हैं,फलस्वरूप किसी तथ्य या घटना का बिना तार्किक विश्लेषण किए उत्साहित होकर हम भीड़ मे सम्मिलित होकर पैरवी करने लगते हैं लेकिन देर सबेर हकीकत सबके सामने आ ही जाती है !! इस से हमारी सार्वजनिक विश्वसनीय व स्वीकार्यता पर प्रश्न लग जाता है ! और हम स्वयं को किंकर्तव्यविमूढ़ पाते हैं !!
Thursday, 1 October 2015
हमारी स्वस्थ सांस्कृतिक परम्पराएं
हमारी स्वस्थ सांस्कृतिक परम्पराएं
गाँव में भी तेजी से शहरी फटाफट संस्कृति पाँव पसार रही है. दूर दराज के गाँव में अब भी संस्कृति की जड़ों को खाद-पानी मुहैय्या हो रहा है..
दगड्यों पंगत मा बैठि तैं माळु का पत्तल मा भात दाल सपोड़्न् कु और व्वे का बाद मिट्ठा भात खाण कु आनंद हि अलग छौ। अब कि बराति्युँ मा बेशक बानि बानि का पकवान बण्यां रंदन पर खड़ा खड़ी खाण मा न आनंद औंदु न धीत भरेंदी .. मैं त घौर बिटि डट्ट खै तैं ब्यो बरातियों मा जांदु छौं .. याद करा दौं दग्डि़यों पैलि सरोळा जी घमा घम जल्दा बल्दा भात का ढिक्का पत्तलों मा डाळ्दा छा, कबारि कबारि त दाल काणा पुड़खों का छेद बिटि सर्रर्रर .... निकळ जांदिं छै, खूब खिकचोट मचदु छौ हैंस्दा हैंस्दा खाणौं पिणु ह्वै जांदु छौ ।पोटगि भी डम भरे जांदि छै अर धीत भी !! दग्ड़ियों कतना भलु लग्दु छौ ना !!
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