राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता या स्वस्थ प्रतिस्पर्धा !!
जूता, थप्पड़, घूँसा, स्याही,,और न जाने क्या-क्या !
आखिर हम ये किस प्रकार सी जंगल संस्कृति की नुमाइश पर उतर आये हैं ! क्या हम विचार शून्य होते जा रहे हैं !! आश्चर्य तब अधिक होता है जब समाज के नेतृत्व का जिम्मा लिये प्रथम पंक्ति के कुछ राजनीतिज्ञ स्वयं तो दिखावे के लिए इस तरह के कृत्यों का “ सधे हुए शब्दों “ में केवल औपचारिक तो विरोध करते हैं (हालाँकि इस विरोध में उनकी शर्तें लागू रहती हैं !!) लेकिन अपने दल के द्वितीय पंक्ति के नेताओं, कार्यकर्ताओं व समर्थकों (अंध समर्थकों) की इस तरह के अमर्यादित कृत्यों पर “ हंसी “ व इन कृत्यों को “ व्यंग्य बाण “ के रूप में इस्तेमाल पर मौन रहना, इन कुत्सित कृत्यों को प्रोत्साहित ही करता है !! कारण !! नकारात्मक कार्यों के कारण, ध्रुवीकरण की आस इन राजनेताओं का को बहुत रास आ रही है !! इन कुंठित व असंस्कृत कृत्यों का सशक्त विरोध किये जाने के स्थान पर राजनेता, राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की मनोवृत्ति से इतना ग्रस्त हो चुके हैं कि ऐसे लोगों को “ उपकृत “ करके इस जंगल संस्कृति को और अधिक पोषित करने में लगे हैं !!
यह नही भूलना चाहिए कि राजनीति किसी भी राष्ट्र की जीवन धारा का मार्ग तय व प्रशस्त करती है, राजनीति को विद्वेष से दूर रख स्वस्थ व वैचारिक प्रतिस्पर्दा तक सीमित रखना भी राजनेताओं का राष्ट्र धर्म है..
शिव खेड़ा साहब ने बहुत सही बात कही है ..” यदि आपके पड़ोस में अपराध हो रहा है और आप बिना प्रतिरोध शांत है तो अपराधी का अगला शिकार आप ही हैं ..” कहा भी गया है जलती लकड़ी पीछे की तरफ ही आती है समय रहते उपाय न किया गया तो हाथ भी जला सकती है !! अब स्थिति यहाँ तक आ ही गयी है !!!
राजनीति के “ वर्तमान संस्करण “ को देखते हुए, आज माननीय अटल जी जैसे नेताओं का समय पूर्व राजनीतिक परिदृश्य से अलग हो जाना बहुत सालता है.. सत्य साधना के लिए साधन और मार्ग भी सत्य आधारित ही होना चाहिए ..