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Friday, 28 August 2015
Monday, 10 August 2015
अंधभक्ति
.....अंधभक्ति....
सोचता हूँ ..किसी भी क्षेत्र में .. अंधविश्वास व अंधानुकरण ... अंधभक्ति को जन्म देते हैं !! .. और अंधभक्ति, व्यक्ति के विवेक को हर कर .. प्रज्ञा को अज्ञातवास पर जाने को मजबूर कर देती है !
फलस्वरूप व्यक्ति आत्ममुग्धता में अपनी मेधा के चारों ओर एक ऐसा आभासी अपारदर्शी आवरण निर्मित देता है जिसके पार वह देखना ही नहीं चाहता !! इस आवरण के अन्दर विचार आवागमन रुकने से,एक ही प्रकार के विचारों की स्थिरता से गाद एकत्र होने लगती है.
इस गाद से उठती दुर्गन्ध से उकताकर, जब व्यक्ति स्वनिर्मित आवरण से बाहर निकल कर झांकता है तब प्रज्ञा वापसी का मार्ग प्रशस्त होता है और उसे अब तक भ्रम जाल में फंसे होने की अनुभूति हो पाती है ! अर्थात सत्यता का ज्ञान होता है ! अब वह स्वयं को ठगा हुआ व किंकर्तव्यविमूढ़ पाता है !! लेकिन तब तक वह बहुत कुछ गँवा चुका होता है !!
चूंकि व्यक्ति से ही समाज व राष्ट्र का निर्माण होता है इसलिए समाज व राष्ट्र को भी खामियाजा भुगतना पड़ता है .. जिसकी भरपाई लम्बे समय तक नहीं हो पाती !!
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